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जैन - कथानकों के अनुसार भरत चक्रवर्त्ती वगैरह सर्वथा अपरिग्रही थे, इसलिए मोक्ष में गए। सनत्कुमार चक्रवर्त्ती ने देह - ममत्व कम किया, तो वे तीसरे देवलोक में गए और सुभूम चक्रवर्ती ने ममत्व - परिग्रह - मोह नहीं त्यागा था, इसलिए नरक में गए 156
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोह के कारण ही मनुष्य की दुर्गति होती है, परंतु इस मोह को भी त्यागा जा सकता है, अतः आगे, इस मोह पर विजय कैसे हो - इस बात की चर्चा करेंगे ।
मोह पर विजय कैसे प्राप्त करें ?
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मोह वास्तव में एक मानसिक - आवेग है । मानसिक - आवेगों पर विजय कैसे प्राप्त की जाए - यह एक प्रश्न है ? मोह वस्तुतः दोहरा कृत्य है, जिसमें एक तो वह व्यक्ति के दृष्टिकोण को भ्रमित करता है तथा उसे दोषयुक्त बनाता है । दृष्टि के दूषित होने पर वस्तुस्थिति का निर्णय सम्यक् प्रकार से नहीं किया जा सकता है।
मोह पर विजय प्राप्त करने के लिए समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने जितेन्द्रिय, जितमोह तथा क्षीणमोह इन तीन प्रकार से मोह को जीतने की बात की है। जितेन्द्रिय होना, अर्थात् इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना । बाह्य - वस्तुओं के प्रति जिसका मोह अधिक होता है, उसे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। चूंकि इन्द्रियों के विषय पराश्रित हैं, अतः मोह पर विजय पाने के लिए सर्वप्रथम चित्तवृत्ति को इन्द्रियों के विषयों अर्थात् बाह्य-विषयों से हटाकर स्व में स्थित करने का प्रयास करना चाहिए। जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर अपने ज्ञानस्वभाव के द्वारा आत्मा को जानता है, उसे ही नियम से, अर्थात् नय से साधु कहा जाता है। 7
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' भावना - स्तोत्र, भाग-1, साध्वी सुलक्षणाश्री, पृ. 269
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17 जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू ।। -
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समयसार, गाथा - 31
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