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________________ 3. मोह से ममत्व बढ़ता है महाभारत में स्पष्ट कहा है – “बन्ध और मोक्ष के लिए क्रमशः दो ही पद प्रयुक्त होते हैं- 1. मम और 2 निर्मम । जब किसी पदार्थ के प्रति मम अर्थात् ममत्व या मेरापन का भाव आता है, तब ही प्राणी कर्म - बन्धन से बंध जाता है और जब किसी पदार्थ के प्रति निर्मम (मेरा नहीं है) भाव आता है, तब बन्धन से मुक्त हो जाता है 46 "अज्ञान में मोहित बुद्धि वाला जीव मिथ्यात्व रागादि विविध परिणामों से युक्त हुआ शरीरादि और शरीर से भिन्न स्त्री, पुत्र आदि मिश्र पदार्थों के संबंध में ऐसा मानता है कि यह मेरा है और मैं इनका हूँ, यह मेरा है, यह पूर्व में मेरा था, और भविष्य में भी मेरा होगा । "47 "जो जीव मोह से युक्त हैं, वे विश्व के सभी पदार्थों से अलग होते हुए भी अज्ञान, राग-द्वेष और मोह के कारण विश्व के समस्त पर - पदार्थों को अपना मानते हैं। यह एकमात्र मोह का ही परिणाम है। इसका मूल मोह ही है और जिनमें यह मोह नहीं होता वे ही यति, साधु, ऋषि, मुनि हैं । 48 वस्तुतः, मोक्ष के अभिलाषी जीव को कभी - कभी शरीरादि पर पदार्थों के प्रति ममत्व या मूर्च्छा के बदले परमात्मा या गुरु के प्रति भी ममत्व उत्पन्न हो जाता है, किन्तु जैनदर्शन में इसे भी मुक्ति में बाधक कहा गया है। जो व्यक्ति मोहग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि दूषित होने से वह पुत्र, पुत्री, स्त्री, धन, मकान, अन्य साधन-सामग्री को अपना कहता है, पर ये सभी भी जब तक जीवन है, तभी तक अपने कहलाते हैं। पत्नी घर की देहरी तक, स्वजन श्मशान तक और यह शरीर चिता तक ही साथ 46 47 48 द्वे पदे बन्ध-मोक्षाय, निर्ममेति ममेति च । ममेति अध्यते जन्तुः, निर्ममेति विमुच्यते ।। - महाभारत Jain Education International - 497 समयसार, गाथा 20-23 विश्वादिभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा, दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् । मोहककन्दोऽध्यवसाय एष, नास्तीह येषां यतयस्त एव ।। 4/72 For Personal & Private Use Only अमृतकलश, अमृतचन्द्राचार्य www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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