SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के साथ उत्पन्न होते हैं और उन्हें उत्तेजित भी करते हैं । पाश्चात्य - मनोविज्ञान में उन्हें मूलप्रवृत्ति {Instincts } कहा गया है। 20 कर्मग्रंथ के अनुसार, जो कषाय न हों, किन्तु कषाय के सहवर्ती हों, कषाय के उदय के साथ जिनका उदय होता है, कषायों को उत्पन्न करने में तथा उद्दीपन करने में जो सहायक हों, उन्हें 'नोकषाय' कहते हैं। 21 नोकषायों पर पाश्चात्य - विचारकों ने जहाँ मात्र मनोवैज्ञानिक - दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन- विचारणा में जो मानसिक-तथ्य नैतिक - दृष्टि से अशुभ होते हैं, उन्हें नोकषाय कहा गया है। कषायों के सहचारी कारणरूप मनोभावों को नोकषाय कहा गया है, यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियां हैं, जिनसे कषाय उत्पन्न होती है 2 और जो कषायों के परिणाम भी होते हैं। नोकषाय के भेद भी नौ हैं, वे इस प्रकार हैं - 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रीवेद, 8. पुरुषवेद, 9 नपुंसकवेद 24 उत्तराध्ययनसूत्र में नोकषाय को 'सप्तविध' या 'नवविध' कहा गया है। वस्तुतः, नोकषाय कषायों का हेतु और परिणाम - दोनों होते हैं। इस प्रकार, मिथ्या अथवा सम्यक् समझ के अभाव के कारण कषाय जन्म लेते हैं और कषाय के कारण दृष्टिकोण दूषित होता है, इसलिए कहा गया है कि दर्शनमोह ओर चारित्रमोह में कौन प्रारंभिक है - यह बताना कठिन है । जैसे मुर्गी और अण्डे में कौन पहले हुआ यह बताना संभव नहीं है, उसी प्रकार कषायों के कारण मोह उत्पन्न होता है, मोह के कारण कषाय, इसमें किसी की प्राथमिकता निर्धारित कर पाना संभव नहीं है । 25 20 'तुलना कीजिए - जीवनवृत्ति और मृत्यु वृत्ति (फ्रायड) 21 11) कषाय- सहवर्त्तित्वात् कषाय- प्रेरणादपि हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषाय-कषायता । - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका 17 22 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसाये वेदयति तं णोकसाय वेदणीयं णाम धवला, 13/5 2 उद्धृत - जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ.सागरमल जैन, पृ.501 231) तत्त्वार्थसूत्र, 8/10 2) उत्तराध्ययनसूत्र, 32 / 102 3) स्थानांगसूत्र - 9 / 500 4) प्रज्ञापनासूत्र 23/2 5) कर्मप्रकृति 62 प्रवचनसारोद्धार, द्वार 215, भाग-1, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 262 उत्तराध्ययनसूत्र, 33 / 11 जहा य अण्डप्पभवा बलागा अण्डं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ।। - 24 25 491 Jain Education International For Personal & Private Use Only उत्तराध्ययनसूत्र, 32/6 www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy