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शास्त्रीय-ज्ञान में नहीं, आचरण में है। "धर्म सैद्धांतिक-मान्यताओं में नहीं, सिद्धांतों का जीवन जीने में है। धर्म आचरण में उतरे, तो ही परिपूर्ण होता है, सम्यक् होता है, अन्यथा मिथ्या ही रहता है, चाहे उसे बौद्ध कहें, या जैन, ईसाई कहें, या हिन्दू, मुस्लिम कहें या यहूदी, पारसी कहें, या सिक्ख या और कुछ।132 धर्मपालन का मुख्य उद्देश्य है -हम अच्छे आदमी बनें। धर्म का सार तो चित्त की शुद्धता में है, राग-द्वेष, मोह के बंधनों से मुक्त होने में है, विषम परिस्थितियों में भी चित्त की समानता बनाए रखने में है, मैत्री, करुणा, मुदिता में है।
132 धर्म जीवन जीने की कला - सत्यनारायण गोयनका, पृ. 76
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