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अनुकम्पा व आस्तिक्यरूपी लक्षणों का वर्णन किया है । सम्यग्दर्शन के गुणों (लक्षण)
का विवेचन इस प्रकार है
1. सम
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सम का अभिप्राय है- समता । सभी प्राणियों को अपने ही समान समझना । 'शम' का अभिप्राय क्रोधादि कषायों का निग्रह करना तथा मिथ्याग्रह, दुराग्रह का शमन है। 'श्रम' यहाँ पुरुषार्थ और परिश्रम - दोनों ही रूपों में वर्णित है। सम्यक्त्वी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा न करके स्वयं ही पुरुषार्थ करता है और परिश्रम करके मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है ।
2. संवेग
जिससे कषायों का वेग 'सम्' हो जाए, वही संवेग है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकारों ने संवेग का अर्थ मोक्ष की अभिलाषा ( रुचि) किया है। वस्तुतः, मन में क्रोध आदि के भाव (वेग) आने पर प्रतिक्रिया नहीं करना ही संवेग (सम्+वेग) है।
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संवेग के मोक्षाभिलाषी अर्थ को स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचन्द्रसूरि लिखते हैं - " दैवीय - सुखों को भी दुःखरूप मानना (जो यथार्थ में सुखाभास है, किन्तु परिणामतः दुःखस्वरूप है) तथा एकमात्र मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है - ऐसा मानकर एवं मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा रखना ही संवेग
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3. निर्वेद -
यह सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण है । उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में निर्वेद का अर्थ विषयों से विरक्ति है, अर्थात् सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन - भाव निर्वेद है। निर्वेद साधना-मार्ग में अग्रसर होने में अत्यन्त सहायक होता है। इससे निष्काम भावना तथा अनासक्त- - दृष्टि का विकास होता है । 'निर्गत वेद यस्मिन् स निर्वेद' व्युत्पत्तिपरक व्याख्या के अनुसार क्रोध आदि कषायों के वेदन का अभाव निर्वेद
85 उत्तराध्ययनसूत्र टीका, ( शान्त्याचार्य), पत्र 577
86 सम्यग्दर्शन, (रामचन्द्रसूरि), पृष्ठ-284
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