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________________ 449 'धर्म' शब्द व्याकरण के अनुसार 'घृञ्-धारणे' धातु में 'मन्' प्रत्यय लगाने से बनता है। घृञ् का अर्थ है - स्थापित, सुरक्षित, नित्य, सहायक और धारण किया हुआ आदि। जबकि 'मन्' प्रत्यय का अर्थ है - याद करना, मानना, पूजा करना और प्रत्यक्ष करना आदि। हिन्दू-धर्मग्रंथों और जैन-आगमों में इसी आधार पर धर्म को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है। उसके व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्न हैं – धियते लोकः अनेन इति धर्मः –जिससे लोक को धारण किया जाए, वह धर्म है। धरति धारयति वा लोकं इति धर्मः – जो लोक को धारण करे, वह धर्म है। ध्रियते यः स धर्म – जो धारण किया जाए, वह धर्म है। महर्षि कणाद ने धर्म की व्याख्या करते हुए वैशेषिकसूत्र में लिखा है- जिससे सांसारिक-विकास तथा निःश्रेयस की प्राप्ति हो, वह धर्म है, अर्थात् वे विचार, सिद्धांत और आचरण धर्म कहलाते हैं, जिनसे मनुष्य की सांसारिक, सामाजिक-उन्नति के साथ-साथ आत्मिक-उन्नति भी हो। इस प्रकार, धर्म बड़ा व्यापक शब्द है, जिसमें मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा, लोक-परलोक, कर्म, उपासना आदि सब कुछ सम्मिलित हैं। दशवैकालिकचूर्णि में कहा गया है कि जिस तरह किसी वस्तु को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर धरा जाता है, उसी तरह संसार के प्राणियों को बुरी गति में जाने से जो बचाता है, या दुःख से छुटकारा दिलाता है, साथ ही उक्त सुख को प्राप्त कराता है या उच्च गति में पहुंचाता हैं, वह धर्म है।' वस्तुतः, धर्म वह है, जो क) ध्रियते लोकाऽनेन, धरति लोकं वा घृ + मन्। –संस्कृत हिन्दी कोश, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 488 ख) धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः । -वाल्मीकि रामायण 7/59, प्रक्षेप 2/70 ' यतोऽम्युदयनिः श्रेयससिद्धि स धर्मः। - वैशेषिकदर्शन 1/1/2 ' यस्माज्जीवं नरकतिर्यग्योनि कुमानुषदेवत्वेषु प्रयतन्तं धारयतीति धर्म। उक्त च - दुर्गतिप्रसृतान जीवान, यस्माद्धारयते यतः । द्यते चैतान् शुभस्थाने, तस्माद्धर्म इति स्थितः।। - दशवैकालिक, जिनदासगणि, चूर्णि पृ.15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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