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________________ स्पष्ट है कि संज्ञा प्राणी-व्यवहार का प्रेरक तत्त्व है। चाहे आहारसंज्ञा हो या भयसंज्ञा अथवा परिग्रहसंज्ञा हो या मैथुनसंज्ञा हो, यह सभी किसी न किसी रूप में हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आहार, भय, मैथुन और परिग्रह कहीं-न-कहीं हमारे व्यवहार के प्रेरक हैं। संज्ञा का जो दसविध वर्गीकरण है, उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ -ये भी प्राणी-व्यवहार के प्रेरक हैं और व्यवहार के रूप में ही अभिव्यक्त होते हैं। चूंकि ये सब प्राणीय-अभिव्यक्ति को ही व्यक्त करते हैं, इसलिए इन चारों कषायों को भी हम व्यवहार के प्रेरक के रूप में भी मान सकते हैं। संज्ञाओं का जो षोड़शविध वर्गीकरण है, उसमें सुख, दुःख, शोक -ये भी प्राणी-व्यवहार से ही संबंधित प्रतीत होते हैं, क्योंकि इन अवस्थाओं में भी प्राणी किसी न किसी प्रकार का व्यवहार या अभिव्यक्ति अवश्य करता है। मोह भी एक प्रकार की अज्ञान-दशा है और दूसरी दृष्टि से यह ममत्व-वृत्ति या मेरेपन का गलत बोध है। क्योंकि जैनदर्शन की दृष्टि से कोई भी वस्तु मेरी नहीं हो सकती है, लेकिन यह भी सत्य है कि व्यक्ति इस अज्ञान या मोह के कारण अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ करता है। पत्नी, बेटा, परिजन, स्वजन आदि के प्रति जो व्यवहार होता है, वह मोहजन्य ही है। इस प्रकार से, मोह को भी हम व्यवहार का प्रेरक मान सकते हैं। जहाँ तक विचिकित्सा का प्रश्न है, वह तो एक प्रकार से आलोचनात्मक-वृत्ति या व्यवहार की ही परिचायक है, अतः उसे भी व्यवहार के प्रेरक के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। इन संज्ञाओं को आधुनिक मनोविज्ञान मूलप्रवृत्तियों और संवेगों के रूप में मानता है और ये दोनों मनोविज्ञान की दृष्टि से व्यवहार के प्रेरक हैं। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य-मनोवैज्ञानिक इस विषय में एकमत हैं कि व्यवहार का प्रेरक-तत्त्व वासना या काम है और वे मूलभूत व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व हैं। संज्ञाओं के इस षोड़शविध वर्गीकरण में, अथवा दशविध वर्गीकरण में, धर्मसंज्ञा और ओघसंज्ञा का भी विवेचन किया गया है। धर्म शब्द को अनेक रूपों में व्याख्यायित किया गया है। एक ओर, उसे स्वभाव माना गया है तथा दूसरी ओर वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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