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________________ 435 स्पष्ट कहा गया है कि तृष्णा से पराजित व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ बढ़ते हैं, जिससे वह दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता। दुःख की प्रक्रिया का क्रम निम्न है - जहाँ आसक्ति है, वहाँ राग है, जहाँ राग है, वहाँ कर्म है, जहाँ कर्म है, वहाँ बन्धन है और बन्धन स्वयं दुःख है। वस्तुतः दुःख का मूल कारण ममत्त्व, राग-भाव या आसक्ति है। यह राग या आसक्ति तृष्णा जन्य है और तृष्णा मोह-जन्य है। मोह ही अज्ञान है, यद्यपि अज्ञान (मोह) और ममत्त्व में कौन प्रथम है, यह कहना कठिन है। इन दोनों में पहले मुर्गी या अण्डे के समान किसी की भी पूर्वापरता स्थापित करना असंभव है।43 दुःखमुक्ति के उपाय - भारतीय-दर्शनों में जैन, बौद्ध, सांख्य आदि दर्शनों के चिन्तन का आरम्भिक सोपान भले ही दुःख रहा हो, किन्तु उसकी अन्तिम परिणति तो पूर्ण दुःखविमुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति में है। भारतीय-दर्शन का मूलमंत्र- 'अंधकार से प्रकाष की ओर, असत् से सत् की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है।' समाधिशतक में दुःखमुक्ति के उपाय को बताते हुए कहा गया है –“भेद विज्ञान के द्वारा जो पुरुष आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उसके सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। 44 आत्मानुशासन में कहा है -"इष्ट वस्तु की हानि से शोक और फिर उससे दुःख होता है तथा फिर उसके लाभ से राग तथा फिर उससे सुख होता है, इसलिए बुद्धिमान पुरुष को इष्ट की हानि में शोक से रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए। 45 43 उत्तराध्ययनसूत्र 32/6,7,8 उद्धत् (उत्तराध्ययनसूत्र दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व) - साध्वी डॉ. विनीतप्रज्ञा 44 आत्मविभ्रमजं दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ।। - समाधिशतक, श्लोक 41 45 आत्मानुशासन, श्लोक- 186-187 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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