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क्या करणीय हैं और क्या अकरणीय है और इसके साथ-साथ विस्तार से चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि प्रतिलेखन आदि किन-किन नियमों के अनुसार करना चाहिए, साथ ही यह भी बताया गया है कि साधु-साध्वी को कौन-कौनसी सामग्री रखना चाहिए, या कितने परिमाण में होना चाहिए। अनायतन-वर्जन में इस बात की चर्चा की गई है कि किन-किन स्थानों पर ठहरना चाहिए। इस प्रकार, किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए और किन-किन की आलोचना करना चाहिए। इसकी भी विशेष चर्चा है। आभोगमार्गणा के अंतर्गत यह भी चर्चा की है कि साधु-साध्वी के लिए क्या-क्या बातें निषिद्ध हैं। इस प्रकार, ओघ-संज्ञा में संज्ञा शब्द वासना या सामान्य प्रवृत्ति का वाचक न होकर विशेष प्रवृत्ति का वाचक है, इसलिए ओघनियुक्ति में यही बताया गया है कि साधु-साध्वी को अपनी सामान्य प्रवृत्ति किस प्रकार करना चाहिए। उसके लिए क्या निषिद्ध हैं -इसकी चर्चा के साथ-साथ इसमें यह भी बताया गया है कि जो करणीय है, उसे कैसे किया जाता है ? इस प्रकार, ओघ-संज्ञा का अर्थ सामान्य प्रवृत्ति न होकर विवेकयुक्त प्रवृत्ति माना जाना चाहिए। यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार 28 में ओघसंज्ञा का अर्थ ज्ञान और विवेक किया है। इस प्रकार ओघ-संज्ञा वस्तुतः विवेकयुक्त आचरण का ही प्रतिपादन करती है।
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28 अध्यात्माभ्यासकालेऽपि क्रिया काप्येवमस्ति हि शुभौधसंज्ञानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किंचन - अध्यात्मसार, अध्याय 2, गाथा 28
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