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अंगुली पर की जा सकती है, उसी प्रकार रत्न की परख करने वाले जौहरी और आत्मसिद्धि के साधक भी दुनिया में अल्प हैं।
लोक-संज्ञाहता हन्त नीचैर्गमनदर्शनैः ।
शंसयति स्वसत्यांगमर्मघातमहाव्यथाम् ।।6।। खेद का विषय है कि लोकसंज्ञा से व्याकुल नतमस्तक होकर धीमी (मन्थर) गति से चलते हुए अपने सत्य-व्रतरूप अंग में हुए मर्म प्रहार की महावेदना को प्रगट करते हैं।
उपर्युक्त श्लोक का तात्पर्य, मुनि लोकसंज्ञा के वशीभूत होकर अपने लक्ष्य से न भटके, दिखावे और प्रदर्शनरूपी धर्म का त्याग करे, सत्यधर्म और सम्यकधर्म का अनुसरण जब करेगा, तो साधक का मस्तक सदा ऊँचा और गति सदा तीव्र रहेगी।
आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ किं लोकयात्रया।
तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शने।।7।। अर्थात्, आत्मा के साक्षीभावरूप धर्म ही सत्धर्म है, इसलिए इसकी सिद्धि में लोगों के सामने दिखावा करने का क्या प्रयोजन है, अर्थात् ऐसा करने से कोई लाभ नहीं है। इस प्रसंग में प्रसन्नचंद्र राजर्षि और सम्राट भरत के उदाहरण यथोचित हैं।
चक्रवर्ती भरत बाह्य-दृष्टि से आरम्भ-समारम्भ से युक्त संसार-रसिक दृष्टिगोचर होते थे, लेकिन आत्म-साक्षी से निर्लिप्त पूर्ण योगीश्वर थे। किसी ने ठीक ही कहा है –“भरतजी मन में ही वैरागी, जबकि प्रसन्नचंद्र राजर्षि बाह्यदृष्टि से घोर तपस्वी, आरम्भ-समारम्भरहित, मोक्षमार्ग के पथिक थे, लेकिन आत्म-साक्षी से युद्धप्रिय बाह्य भावों में लिप्त थे। श्री ‘महानिशीथ सूत्र' में कहा गया है -
धम्मो अप्पसक्खिओ। धर्म आत्म-साक्षिक है। यदि हम आत्मसाक्षी से धार्मिक-वृत्ति के हैं, तो फिर लोक-व्यवहार से क्या मतलब ?
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