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प्राणी व्यवहार का वाचक माना गया. है। इस आधार पर विचार करें, तो ओघ-संज्ञा का संबंध आचार के सामान्य सिद्धांत से है, जबकि लोक-संज्ञा का संबंध प्राणी व्यवहार की सामान्य प्रवृत्तियों से है। ओघ-संज्ञा निवृत्तिपरक सामान्य आचार की बात करती है, वहीं लोक-संज्ञा प्रवृत्तिपरक आचार की बात करती है। जैन-परम्परा में संज्ञाओं के चुतुर्विध वर्गीकरण में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह -इन चार संज्ञाओं को प्राणी-व्यवहार का आधार माना गया है। सामान्य दृष्टि से यह चारों संज्ञाएं लोक-संज्ञा में समाहित हो जाती हैं। इसी प्रकार, संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में जो चार कषाय-रूपी संज्ञा अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ की चर्चा की गई है, वह भी सामान्य दृष्टि से प्राणीय व्यवहार की प्रेरक होने से लोक-संज्ञा में समाहित हो जाती है। इस प्रकार, लोकसंज्ञा के अन्तर्गत सामान्य प्राणी-व्यवहार के मूल प्रेरक तत्त्व समाहित होते हैं, किन्तु यह लोक-संज्ञा सांसारिक-प्रवृत्ति की वाचक है। जैसा कि कहा गया है -
"आहार निद्रा भय मैथुनं, सामान्यमेतद् पशुभिः नराणाम्। ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।। 15
उक्त श्लोक के प्रारंभिक चार तत्त्व आहार, निद्रा, भय और मैथुन का संबंध लोकसंज्ञा से है, जबकि ओघ-संज्ञा का संबंध जैन-आचार्यों ने धर्म के सामान्य नियमों से माना है। इस प्रकार लोक-संज्ञा और ओघ-संज्ञा में अन्तर है। जैन आचार्यों की दृष्टि में ओघ-संज्ञा निवृत्तिपरक मुनिजीवन के सामान्य नियमों की चर्चा करती है, इस दृष्टि से वह उपादेय मानी गई है, जबकि लोक-संज्ञा को जैन आचार में सदैव उपेक्षणीय और त्याज्य है। इस प्रकार, जैन धर्मदर्शन के क्षेत्र में लोक-संज्ञा हेय है और ओघ-संज्ञा उपादेय है। ओघ-संज्ञा की उपादेयता और लोक-संज्ञा की हेयता का प्रश्न -
यहां सामान्य रूप से यह प्रश्न खड़ा होता है कि यदि ओघ-संज्ञा और लोक-संज्ञा सामान्य आचार की वाचक है, तो एक को उपादेय और दूसरे को हेय
1 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 163
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