SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संज्ञा इच्छा या आकांक्षा के रूप में --- जहाँ-जहाँ जीवन है, चेतना है, वहाँ-वहाँ इच्छा एवं आकांक्षा है । चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यह है कि वह बाह्य एवं आन्तरिक - उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विषम परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाए रखने की कोशिश करता है । मनुष्य ही नहीं, तिर्यंचों में भी छोटे से छोटे जीव भी जीवन की सुरक्षा के लिए स्थान, भोजन आदि आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था में लगे रहते हैं। उसका कारण यह है कि उनके मन में भी जीवन जीने की इच्छा या आकांक्षा रहती है। जीवन जीने के लिए परिस्थितियों से अनुकूल बनाए रखना आवश्यक है । फ्रायड लिखते हैं - 'चैतसिक जीवन और सम्भवतया स्नायविक जीवन की प्रमुख प्रवृत्ति है - आन्तरिक - उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करना एवं साम्यावस्था को बनाए रखने के लिए सदैव प्रयासशील रहना । ' ऐसा वह क्यों करता है ? इस प्रश्न के समाधान में हम यह कह सकते हैं कि प्राणीय - व्यवहार के प्रेरक - तत्त्व मूल प्रवृत्तियों (Instinct ) को माना गया है । इन्हीं प्राणीय - व्यवहार के प्रेरक - तत्त्वों को जैनदर्शन में संज्ञा कहा गया है। संज्ञाएँ जन्मजात मानी गई हैं, इस कारण जीव की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है कि वह प्रतिकूल से अनुकूल परिस्थितियों में अपने को ले जाता है । यों तो आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि सामान्य प्रवृत्तियाँ मनुष्य पशु सबमें होती हैं, किन्तु मनुष्य अपनी विवेक - शक्ति के कारण ही उचित या अनुचित का भेद कर सकता है। पशुओं में मात्र वासनात्मक संज्ञाएँ होती हैं, जबकि मनुष्यों में विवेक या संज्ञानात्मक संज्ञा भी होती है। 40 22 जैनागमों में संज्ञा का एक अर्थ इच्छा या आकांक्षा (Desire ) लिया गया है तो दूसरा अर्थ विवेकशीलता भी माना गया है। फिर भी इच्छा, आकांक्षा तथा संज्ञा में सूक्ष्म अंतर भी है। संज्ञा प्रसुप्त या अवचेतन में रही हुई इच्छा है। ज्ञान - मीमांसा की Jain Education International 4° Beyond the pleasure principle - S. Freud उद्धृत (आध्यात्मयोग और चित्त - विकलन, पृ. सं. 246 ) 41 आगमप्रसिद्धा वाच्छा संज्ञा अभिलाष इति (गो.जी./जी.प्र.2/21/10) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy