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________________ 408 साधु-आचार से सम्बन्धित है इसलिए नियुक्तिकार ने यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि इसमें चरणकरणानुयोग का विवेचन किया गया है, अतः यह ग्रंथ मूलतः साधु के सामान्य आचार से संबंधित है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि षडावश्यक, दशविध-सामाचारी, दस श्रमणधर्म, पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि साधु के सामान्य आचारों का आधार लेकर यह नियुक्ति लिखी गई है। इसके विषयवस्तु की चर्चा करते हुए कहा गया है कि प्रतिलेखन, पिंड, उपधि, परिमाण, अनायतन, प्रतिसेवन, आलोचन, विशुद्धि, आभोगमार्गणा, गवेषणा आदि का विवेचन ही इस नियुक्ति में हुआ है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ओघसंज्ञा का मूलतः संबंध आचार के सामान्य नियमों से ही है। यद्यपि ओघनियुक्ति की विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें, तो हमें कहना होगा कि साधु के सामान्य आचार-नियमों का संबंध ही ओघ-संज्ञा है। जहां तक लोक-संज्ञा का प्रश्न है, वह ओघसंज्ञा की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ की सूचक है। जहां ओघ-संज्ञा साधु के सामान्य आचार की बात करती है, वहां लोक-संज्ञा जनसामान्य की सामान्य प्रवृत्तियों की चर्चा करती है। इस प्रकार जहां ओघसंज्ञा साधु के सामान्य आचारों की चर्चा करती है, वहीं लोक-संज्ञा जनसामान्य के सामान्य अवबोध और सामान्य प्रवृत्तियों की चर्चा करती है। वह लौकिक-आचरण से संबंधित है, जैसे -श्वान यक्षरूप है, विप्र को देव मानना, कौए को पितामह मानना -ऐसी जो लोक-प्रवृत्तियाँ है उनकी चर्चा लोक-संज्ञा का विषय है। 'मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रुचिकर पदार्थों को विशेष रूप से जानने की तीव्र अभिलाषा लोक-संज्ञा है।" यही बात स्थानांगवृत्ति में भी कही गई है।12 सामान्यतः, जैन-परम्परा में उन्हीं के आचारों को लोकोत्तर आचार कहा "प्रज्ञापनासूत्र, पद 8 12 मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छन्दाद्यगोचर तद्धिशेषावोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा। - स्थानांगवृत्ति, पत्र 479 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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