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अध्याय-10 लोक-संज्ञा और ओघ-संज्ञा के विभिन्न अर्थ
संज्ञा जैन-मनोविज्ञान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैनदर्शन में संज्ञी और संज्ञा -इन दोनों शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। संज्ञी शब्द विवेकशीलता का वाचक है। अन्य दृष्टि से वह व्यवहार का प्रेरक भी माना जाता है। नन्दीसूत्र में तीन प्रकार के संज्ञी बताए गए हैं -1.कालिकोपदेश, 2.हेतूपदेश, 3.दृष्टिवादोपदेश' इन संज्ञी के आधार पर हम संज्ञाओं के भी तीन प्रकार कर सकते हैं - 1.कालिकोपदेशिकी, 2. हेतुपदेशिकी, 3.दृष्टिवादोपदेशिकी। इसका अर्थ इस प्रकार से है कि कालिक सूत्रों के अध्ययन से, हेतु के उपदेश से और दृष्टिवाद के अध्ययन से व्यवहार से जो प्रेरणा मिलती है, वही इन संज्ञाओं का अर्थ है। .
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में संज्ञाओं के दो पक्ष हैं - एक ज्ञानात्मक और दूसरा संवेगात्मक। संवेगात्मक-संज्ञाओं को हम वासनात्मक भी कह सकते हैं। यहाँ वासनात्मक अर्थ व्यापक अर्थ में गृहीत है, सैद्धान्तिक-दृष्टि से ज्ञानावरण, दर्शनावरण के क्षयोपशम से जो चैतसिक-स्थिति बनती है, वह ज्ञानात्मक-संज्ञा है और वेदनीय और मोहनीय-कर्म के उदय से जो संज्ञाएं उत्पन्न होती हैं, वे संवेगात्मक और वासनात्मक-संज्ञा है। भगवतीसूत्र के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने ओघ-संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक-संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया है।
संज्ञाओं का जो दशविध वर्गीकरण किया जाता है उसमें नौवें और दसवें क्रम पर लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा को स्थान दिया गया है। यद्यपि संज्ञाओं के वर्गीकरण
1 नंदीसूत्र – 61
भगवई, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती, लाडनूं, श.7, उ.8.सू.161, पृ. 382 31) स्थानांगसूत्र - 10/105, 2) प्रज्ञापनासूत्र, पद-8, 3) प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभाश्री, द्वार 146, गा. 924, पृ. 80
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