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अधिक धन बाजी पर लगाता चला जाता है और सारा धन नष्ट हो जाता है। ऋग्वेद में द्यूत-क्रीड़ा को त्याज्य माना है। सूत्रकृतांग में भी चौपड़ या शतरंज के रूप में जुआ खेलने का निषेध किया गया है, क्योंकि हारा जुआरी लोभ के कारण दोगुना खेलता है। एक पाश्चात्य-चिन्तक ने भी लिखा है - जुआ लोभ का बच्चा है और फिजूलखर्ची का पिता है। जुए में आसक्त व्यक्ति धन का नाश करता है। एच.डब्ल्यू.वीचर का अभिमत है -"जुआ, चाहे वह ताश के पत्तों के रूप में खेला जाता हो या घुड़दौड़, अथवा द्वन्द्व युद्ध या सट्टे के रूप में, सभी में बिना परिश्रम किए धन प्राप्त करने की इच्छा निहित है। आँखों से अंधा मनुष्य आँख के सिवाय बाकी सब इंद्रियों से जानता है, किन्तु जुए में अंधा हुआ मनुष्य सब इंद्रियां होने पर भी कुछ नहीं जान पाता।
समाज में भ्रष्टाचार, कालाबाजार, रिश्वतखोरी, मिलावट, अन्याय, अनीति, शोषण, मैच–फिक्सिंग -ये सभी अपराध लोभ के कारण ही होते हैं। चोरी का केन्द्र : लोभ -
चोरी का वास्तविक अर्थ है, -जिस वस्तु पर अपना अधिकार न हो, उसके मालिक की बिना अनुज्ञा या अनुमति के उस पर अधिकार कर लेना। चोरी का मूल केन्द्र लोभ है। लोभ के कारण मनुष्य दूसरों की वस्तु को हथियाने, या उसे अपने अधिकार में करने का प्रयास करता है। भगवान् महावीर ने कहा है – “बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करो। यहाँ तक कि दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका
62 अक्षर्मा दिव्यः। - ऋग्वेद 10/34/13 63 अट्ठाए न सिक्खेज्जा - सूत्रकृतांगसूत्र 9/10 64 Gambling is the child of avarice, but the parent of prodiyality. 65 जुएं पसत्तस्स धणस्स नासो। - गौतम कुलक 66 Gambling with cards, or dice or strokes in all in one thing, it is getting money without giving an equivalent for it. 67 अक्खेहि णरो रहियो, ण मुणइ सेसिंदएहि वेएइ।
जूयंधो ण य केण वि, जाणइ संपुण्ण्करणो वि।।- वसुनन्दि श्रावकाचार, 66 68 अदिन्नमन्नेसु य णो गहेज्जा
- सूत्रकृतांगसूत्र 10/2
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