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________________ 373 अध्याय-9 लोभ-संज्ञा {Instinct of Greed} संज्ञाओं के दशविध और षोडषविध वर्गीकरण में आठवीं संज्ञा लोभ-संज्ञा के नाम से जानी जाती है। वैसे संज्ञा के चतुर्विध वर्गीकरण में चतुर्थ परिग्रहसंज्ञा भी है, जिसका मूल कारण लोभ ही है। यहाँ यह विचारणीय है कि लोभ और परिग्रह में क्या अंतर है ? सामान्य दृष्टि से संग्रह की वृत्ति लोभ है और संग्रह की प्रवृत्ति परिग्रह है। संग्रहवृत्ति की बाह्य अभिव्यक्ति परिग्रह है और आन्तरिक स्थिति ही लोभ है। लोभ एक मनोदशा है और परिग्रह उसी लोभ का बाह्य परिणाम है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोभ हेतु है और परिग्रह उसका परिणाम है। लोभ को कषाय कहा गया है और परिग्रह को संज्ञा, फिर भी व्यावहारिक-दृष्टि से दोनों में किसी सीमा तक समरूपता भी है। लोभ बढ़ने से संचयवृत्ति बढ़ती है और संचयवृत्ति से लोभ बढ़ता है। कहा भी है – “जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डइ', अर्थात् ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। लाभ से लोभ घटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता ही है। 'लोभ' शब्द लुभ् + घञ् के संयोग से बना है, जिसका अर्थ लोलुपता, लालसा, लालच, अतितृष्णा आदि हैं। धन आदि की तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ है। बाह्य-पदार्थों में जो 'यह मेरा है' -इस प्रकार की अनुरागरूप बुद्धि का होना लोभ कहलाता है। योग्य स्थान पर धन को व्यय नहीं करना भी लोभ है। धवला में 'उत्तराध्ययनसूत्र, 8/17 संस्कृत हिन्दी कोश, भारतीय विद्या प्रकाशन वाराणसी, पृ. 886 अनुग्रहप्रवणद्रव्याद्यभिकाङ्क्षावेशो लोभः । – राजवार्तिक, 8/9/5/574/32 * ब्राह्यार्थेषु ममेदं बुद्धिर्लोभः। । - धवला, 12/4 'युक्तस्थले धनव्ययाभावो लोभः। - नियमसार, ता.वृ. 112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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