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________________ साध्वी की तरह कपट रखकर दम्भपूर्वक आलोचना की, तो उसका पाप अल्पमात्र होते हुए भी वह संसारवृद्धि का कारण बनेगा। मोक्ष और साधना में सफलता उसे ही मिलती है, जिसकी आत्मा में सब प्रकार की सरलता हो । जिसके मन, वाणी और कर्म (काया) में कुटिलता भरी है, उसकी मुक्ति किसी प्रकार भी नहीं होती, अतः विवेकबुद्धि से सरलभाव का आश्रय लेकर माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है । उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है – “माया - विजय से सरलता आती है, माया - वेदनीय का बन्ध नहीं होता तथा पूर्वबद्ध माया की निर्जरा हो जाती है । 1 प्रमादवश हुए कपट - आचरण के प्रति आलोचना करके जो सरल हृदय हो जाता है, वह धर्म का आराधक है। जब तक मन निष्कपट और मायारहित नहीं बनता, साधना सफल नहीं हो सकती । कहा भी है मन चंगा तो कठौती में गंगा । भक्त ने गुरु से पूछा - "गुरुदेव ! स्वर्ग (मोक्ष) पहुंचने का सरल मार्ग क्या है ?" गुरू ने कहा " वत्स! सरल बन जाओ, स्वर्ग मिल जायगा ।" - आचार्य हरिभद्रसूरि का एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ है ललितविस्तरा । यह शक्रस्तव की एक पाण्डित्यपूर्ण दार्शनिक - विवेचना है। इस ग्रंथ में माया की तुलना 'माता' से की गई है - - 372 दोषाच्छादकत्वात् संसारिजन्महेतुत्पाद् वा मातेव माया | 2 जिस प्रकार माता अपने पुत्र के दोषों को ढंकती है, उसी प्रकार माया से भी मनुष्य अपने दोषों को ढंकने का प्रयास करता है। दूसरे अर्थ, में माता जिस प्रकार प्राणियों के जन्म का हेतु बनती है, उसी प्रकार माया भी प्राणियों के संसार में जन्म लेने का हेतु बनती है । वस्तुतः, अपने दोषों को मिटाने का, हटाने का दूर करने का प्रयास अच्छा है, परंतु उन दोषों पर परदा डालने का प्रयास बुरा है । 1 माया - विजएणं अज्जवं जणयइ माया वेयणिज्जं कम्मं च बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । 52 ललितविस्तरा, आ. हरिभद्रसूरि, विवेचनकार पू. प. श्री भानुविजयजी, पृ. 10 Jain Education International उत्तराध्ययनसूत्र 29/70 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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