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________________ भूमिका पाश्चात्य-मनोविज्ञान में प्राणीय - व्यवहार का प्रेरक तत्त्व मूलप्रवृत्तियों {Instinct } को माना गया है, इन्हीं प्राणीय - व्यवहार के प्रेरक - तत्त्वों को जैनदर्शन में 'संज्ञा' कहा गया है। जैनदर्शन और आधुनिक - मनोविज्ञान - दोनों में ये प्रवृत्तियाँ जन्मजात मानी गई हैं । प्राणीय व्यवहार की प्रेरक या संचालक इन मूलवृत्तियों को ही संज्ञा कहा जाता है, क्योंकि मूलप्रवृत्तियों के समान संज्ञा भी जन्मना होती है । एक अन्य अपेक्षा से, संसारी जीव के जीवत्व को जिससे जाना या पहचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं, वस्तुतः, जीव के जीवत्व को उसके बाह्य एवं आभ्यान्तर–व्यवहार से ही जाना जाता है, अतः जो इस व्यवहार का प्रेरक - तत्त्व है, वही संज्ञा है । संज्ञा शारीरिक - आवश्यकताओं एवं मनोभावों की वह मानसिक - संचेतना है, जो अभिलाषा या आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त होती है और हमारे व्यवहार की प्रेरक बनती है। संज्ञाओं से बाधित होकर ही जीव इस लोक में कर्म करता है और कर्म के परिणाम-स्वरूप जीव सांसारिक सुख या दुःख को प्राप्त होता है। दूसरे, इन्हीं संज्ञाओं की उपस्थिति के कारण व्यक्ति तनावग्रस्त भी बनता है । क्षुद्र प्राणी से लेकर विकसित मनुष्य तक सभी संसारी जीवों में जो आहार, भय, मैथुन व परिग्रहरूप वृत्तियाँ पाई जाती हैं, जैनधर्म में उन्हें संज्ञा कहते हैं । जैनदर्शन में संज्ञा एक पारिभाषिक शब्द है । उसमें संज्ञा की शास्त्रीय - परिभाषा इस प्रकार है "वेदनीय तथा मोहनीय कर्म के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से आहारादि की प्राप्ति की जो अभिलाषा, रुचि या मनोवृत्ति है, वही संज्ञा है ।" जैनागमों में संज्ञा शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जैसे - 1. नाम या वाचक शब्द के अर्थ में [ Noun} 2. विवेकशक्ति के अर्थ में {Knowledge & Reason } Jain Education International For Personal & Private Use Only 1 - www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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