SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र में माया को तिर्यंचगति का कारण कहा गया है। 37 चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में जो कुटिल भाव पैदा होता है, उससे व्यक्ति तिर्यचगति का बंध कर लेता है । माया, यह भव तो बिगाड़ती ही है, इससे अगला भव भी बिगड़ जाता है, इसलिए शुभचन्द्राचार्य ने कहा है - "दोनों लोकों को बिगाड़ने वाली माया के प्रपंच में मत पड़ो।" 38 4. माया असत्य – अनर्थ की जननी एवं दुर्गुणों की खान योगशास्त्र में कहा गया है कि माया असत्य की जननी है, वह शील अर्थात् सच्चारित्ररूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी के समान है। यह मिथ्यात्व एवं अज्ञान की जन्मभूमि है और दुर्गति का कारण है । माया के वशीभूत होकर मानव मृषावाद का सेवन करता है। वह अपनी गलतियों को छिपाकर, असत्य भाषण करता है। वास्तव में देखा जाए तो माया के बिना झूठ ठहर नहीं सकता । झूठ, चोरी, करचोरी, जमाखोरी, विश्वासघात, देश, समाज और परिजनों के साथ गद्दारी आदि अनेक दुर्गुण माया के कारण उत्पन्न होते हैं। मायावी व्यक्ति अंदर से कुछ और बाहर से कुछ और दिखाई देता है। जलते अंगारे की अपेक्षा राख में छिपे अंगारों की भयंकरता अधिक होती है। जो शत्रु है, उससे हम सावधान रह सकते हैं, पर जो मित्र बनकर शत्रु का कार्य करता है, उससे बचना कठिन हो जाता है । जैसे- बगुले और कौए के बारे में एक कवि ने कहा है 39 37 माया तैर्यग्योनस्य..... ......। - तत्त्वार्थसूत्र, अ. 6, सू. 17 38 अलं माया प्रपंचेन, लोकद्वयविरोधिना असूनृतस्य जननी, परशुः शीलशाखिनः जन्मभूमिरविद्यानां माया दुर्गतिकारणम् Jain Education International तन उजला मन सांवला, बगुला कपटी भेख । यासूँ तो कागा भला, भीतर बाहर एक । । 5. मायाचार से अहंकार पुष्ट होता है व्यक्ति जब किसी को ठगता है, धोखा देता है और सफल हो जाता है, तब इतना प्रसन्न होता है, मानों कोई पुरस्कार प्राप्त हुआ हो और उस सफलता से प्रेरित ज्ञानार्णव / गा. 996 365 - योगशास्त्र 4/15 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy