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उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -"ऋजुभूत-सरल व्यक्ति की ही शुद्धि होती है और सरल हृदय में ही धर्मरूपी पवित्र वस्तु ठहरती है -ऐसा विचार कर हृदय को सरल बनाने का प्रयत्न निरन्तर करते रहना चाहिए। 27 व्यवहार में दूसरों को ठगना निश्चय में अपने आपको ठगना है। छिपकर किए जाने वाले पाप सर्वज्ञ तो जानते ही हैं, प्रकृति भी उसका बदला लेती है - यह सोचकर मायारूपी पाप से बचना चाहिए।
मायोत्पत्ति के कारण -
स्थानांगसूत्र में माया की उत्पत्ति के चार प्रमुख कारण बताए गए हैं -
1. क्षेत्र के कारण - खेत, भूमि आदि को प्राप्त करने के लिए कूटनीति का प्रयोग करना।
. 2. वास्तु के कारण - घर, दुकान, फर्नीचर आदि कारणों से माया उत्पन्न होना।
3. शरीर के कारण - कुरूपता, रुग्णता आदि कारणों से भी मायावी व्यक्ति द्वारा मुखौटा लगाकर अपने-आपकों सुंदर या बीमार दिखाने का बहाना कर माया का सेवन करना।
4. उपधि के कारण - सामान्य साधन-सामग्री को प्राप्त करने के लिए माया की प्रवृत्ति करना।
माया की उत्पत्ति में उक्त चार कारण सभी जीवों में विद्यमान रहते हैं। वस्तुतः, उपर्युक्त चार प्रकार के अलावा माया के निम्न कारण भी हो सकते हैं -
1. माया के लिए माया - व्यापार में झूठ, ठगाई, अत्यधिक मुनाफा, मिलावट, करों की चोरी, विश्वासघातादि सारे. कुकृत्य, धन (माया) कमाने की भावना से ही
27 सोही उज्जूय भयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई - उत्तराध्ययनसूत्र 3/12 28 चउहिं ठाणेहिं माणुप्पत्ती सिता – तं जहा - खेतं पडुच्चा - स्थानांगसूत्र 4/1/81
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