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________________ 351 अध्याय-8 माया-संज्ञा {Instinct of Deceit} भारतीय और पाश्चात्य-मनोविज्ञान में संज्ञा शारीरिक-आवश्यकताओं एवं मनोभावों की वह मानसिक-संचेतना है, जो मानवीय व्यवहार की प्रेरक बनती है। जैनदर्शन संज्ञा शब्द को मूलप्रवृत्ति का समानार्थक मानता है। आहारादि चार मूल प्रवृत्तियाँ सभी जीवों में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान हैं। ये मूलप्रवृत्तियाँ शरीरजन्य होने से सभी जीवों में पाई जाती हैं। केवली भगवान् को छोड़कर जो शरीरधारी जीव हैं, उनमें ये मूलप्रवृत्तियाँ रहती हैं। जैनागमों में संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से मिलता है, जिनमें संज्ञा के दशविध वर्गीकरण' के अन्तर्गत आहारादि चार मूल संज्ञाओं के साथ-साथ क्रोध, मान, माया और लोभ -ये चार कषाय-रूप संज्ञाएँ और लोक एवं ओघ संज्ञा प्रमुख रूप से उल्लेखित हैं। कषायरूप संज्ञाएं मानसिक विकारों के कारण उत्पन्न होती हैं और प्राणीय-व्यवहार की प्रेरक बनती हैं। क्रोध-संज्ञा एवं मान-संज्ञा की विस्तृत व्याख्या के पश्चात् अब हम माया-संज्ञा की विवेचना करेंगे, जिसमें माया-संज्ञा, अर्थात् कपटवृत्ति का स्वरूप, भेद एवं दुष्परिणामों के साथ-साथ, कपटवृत्ति पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाए, यह भी बताने का प्रयास करेंगे। माया शब्द मा+या से बना है। 'या' का अर्थ 'जो' तथा 'मा' का अर्थ 'नहीं' है। इस प्रकार, जो नहीं है, उसको प्रस्तुत करना माया है, इसे दूसरे शब्दों में कपटाचार भी कहा जा सकता है। माया-संज्ञा से तात्पर्य कपटवृत्ति से है। मुख्यतः, हृदय की वक्रता का नाम माया है। "माया मोहनीयकर्म के उदय से अशुभ-अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि रूप कुटिल वाग्व्यापार की प्रवृत्ति को माया-संज्ञा कहते हैं। प्रवचनसारोद्धार में कहा है - मायाकषायजन्य, संक्लेशपर्वक 'प्रज्ञापनासूत्र, 8/725 वही, 8/725 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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