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आत्मा अनन्तज्ञान, दर्शन, आदि गुणों से युक्त है, फिर अल्प ज्ञानादि में अहंकार कैसा ? बाहुबलीजी को अहंकार के कारण एक साल तक घोर साधना करने पर भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, ज्यों ही बहनों के वचन सुन मानरूपी गज से नीचे उतरे, केवलज्ञान प्रकट हो गया। कहा गया है
मा बहतु कोऽपि गर्व इह जगति पण्डितोऽहं चैव । आ सर्वज्ञो मतितः तरतमयोगेन मतिविभवाः । । 65
अर्थात्, मैं पंडित हूँ - ऐसा गर्व कोई न करे, क्योंकि सर्वज्ञ के अलावा भी तरतम योग से मतियुक्त वैभववान् एक-से-बढ़कर - एक मिलेंगे, अतः ज्ञानमान, बड़े छोटे का मान त्यागने योग्य है।
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7. आचारांगसूत्र में कहा है – “यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में, इस प्रकार विभिन्न गोत्रों में जन्म लेने से न कोई हीन होता है और न कोई महान् ।" इसलिए ऊँच-नीच, गोत्र के अभिमान का त्याग करना चाहिए और सभी को समान दृष्टि से देखने से मान-भाव पर विजय पा सकते हैं।
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8. जमीन-जायदाद के स्वामित्व का गर्व किसका टिक पाया है ? "हसन्ति
पृथ्वी नृपति नराणां... पृथ्वी उन राजाओं, जागीरदारों पर हँसती हुई कहती है - " मैं कभी किसी के साथ गई नहीं, किन्तु मुझे मेरी-मेरी कहने वाले यहाँ सदा रहे नहीं । किसका गर्व ? और किसलिए गर्व ?
"
9. मान - जय हेतु विनय - गुण धारण करना चाहिए। योगशास्त्र में कहा है –“दोषरूपी शाखाओं को विस्तृत करने वाले और गुणरूपी मूल को नीचे ले जाने वाले मानसरूपी वृक्ष को मार्दव नम्रतारूपी नदी के वेग से जड़सहित उखाड़ फेंकना चाहिए | 67
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पुष्प - पराग, मुनि श्री जयानन्दविजयजी, पृ. 156
" से असई उच्चागोह, असहं नीआगोए । नी हीणे, नो अइरित्ते.....
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67 उत्सर्पयन् दोषशाखा गुणमूलान्यधो नयन् । उन्मूलनीयो मानद्रुस्तन्मार्दव - सरित्प्लवैः ।।
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I - आचारांगसूत्र 1/2/3
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योगशास्त्र 4 / 14
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