________________
336
समुत्कर्ष – उत्कर्ष और प्रकर्ष के लिए समुचित पुरूषार्थ करना। परिभव - दूसरे का तिरस्कार या अपमान।। उत्सिक्त - आत्मोत्कर्ष से उद्धत या गर्वयुक्त होना।
अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के चार भेद हैं - 1. अनंतानुबन्धी-मान - अनंतानुबन्धी मान सबसे विकट है। यह पत्थर से बने स्तंभ के समान है। बहुत कोशिश करने से भी स्तंभ झुकता नहीं है, टूट जाता है, पर मुड़ता नहीं है, उसी प्रकार अनंतानुबन्धी मान से युक्त जीवात्मा कितने ही प्रयत्न किए जाने पर भी अभिमान नहीं छोड़ता है। वह प्राण न्यौछावर कर देता है, परन्तु समझने-झुकने और माफी मांगने को तैयार नहीं होता है। “पत्थर के खंभे के समान जीवन में कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता
है।"37
2. अप्रत्याख्यानी-मान – अप्रत्याख्यानी-मान अस्थि के समान कहा गया है। जिस प्रकार अस्थि बहुत सारे उपाय करने पर भी महा कष्ट एवं महा मुश्किल से मुड़ती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानी-मान से युक्त जीवात्मा बहुत कठिनाई से समझता है, झुकता है। 3. प्रत्याख्यानी-मान – प्रत्याख्यानी-मान लकड़ी के समान है। नेतर की डंडी जल्दी मुड़ जाती है, परन्तु लकड़ी की डंडी जल्दी नहीं मुड़ती है, बहुत कोशिश करने पर मुड़ती है। ठीक उसी प्रकार प्रत्याख्यानी-मान वाला जीव जल्दी नहीं झुकता है।
4. संज्वलन-मान – मान व्यक्ति को नमने से रोकता है, खमने से टोकता है। चार प्रकार के मान में से संज्वलन मान नेतर की डंडी के समान कहा गया है। जिस
36 क) तिनिशलता-काष्ठास्थिक-शेलस्तंभोवमो मानः - प्रथम कर्मग्रन्थ गा. 19
ख) चत्तारि थंभा पण्णत्ता तं जहा 1. सेलथंभे, 2. अट्ठियंभे, 3. दारूथंभे, 4. तिणिसलाताथंभे - स्थानांगसूत्र 4/2/293
ग) समवायांगसूत्र 16/111 37 स्थानांगसूत्र - 4/2
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org