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गति बढ़ा देता है, जिससे पाचन-क्रिया में विघ्न आता है, रुधिर का दबाव बढ़ता है तथा एड्रिनल ग्लैण्ड (अधिवृक्क ग्रंथि को उत्तेजित होती है। 5
क्रोध और आक्रामकता का संवेग जब प्रदीप्त होता है, तब शरीर की ऊर्जा नष्ट होती है, शरीर का हास होता है, बल क्षीण होता है । मनोविज्ञान की मान्यता है - तीन मिनट किया गया तीव्र क्रोध और आक्रामकता की अवस्था नौ घंटे कठोर परिश्रम करने जितनी शक्ति को समाप्त कर देता है ।
दैहिक - ह्रास के साथ-साथ जब क्रोध - संवेग के साथ आक्रामकता की वृत्ति जुड़ जाती है, तो व्यक्ति प्रतिपक्षी के अहित के लिए भी तत्पर हो जाता है और उसे शक्तिहीन बनाने का प्रयास करता है । क्रोध में जहाँ स्वयं के प्रति संरक्षणात्मक - वृत्ति होती है, वहीं दूसरों को अहित या चोट पैदा करने का भाव बन जाता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि मनोवैज्ञानिक - दृष्टि से क्रोध - संवेग और आक्रामकता की मूलवृत्ति एक दूसरे से जुड़ी हुई है। क्रोध जैसे-जैसे स्थाई रूप लेता है, आक्रामकता की वृत्ति भी सबल होती जाती है। क्रोध में व्यक्ति दूसरे का अहित करने के साथ-साथ अपना भी अहित कर लेता है, अपनी आत्मशक्ति को खो देता है, अतः विभिन्न धर्म-परम्पराओं में क्रोध से बचने का निर्देश दिया गया है, इसीलिए आध्यात्मिक - लोगों में क्रोध पर विजय पाने के लिए क्षमारूपी शस्त्र को अपनाने की बात कही गई है। गीता में एक प्रश्न पूछा गया था - "व्यक्ति पाप- प्रवृत्ति कैसे करता है ? उत्तर में कहा गया - "काम, क्रोध ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को पापप्रवृत्ति में डालते हैं।”96
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सारांशतः जैनदर्शन का कहना है कि क्रोध एक कषाय है, वह आत्मा को पतन के गर्त में डालता है, उससे बचने का प्रयास करना चाहिए ।
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95 सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा, डॉ. रामनाथ शर्मा, पृ. 420-421
* अथ केन प्रयुक्तीडयं पापं चरति पुरूषः
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
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गीता 3/36-37
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