SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 318 6. क्रोध-विजय किसी जप के आलम्बन से भी संभव है। मंत्र को श्वासोच्छवास के साथ जोड़ा जा सकता है। व्यर्थ के विचारों से हटकर अन्तर्मुखी बनने की यह एक सरल प्रक्रिया है। अभ्यास-वृद्धि के साथ-साथ कल्पना के अन्तश्चक्षुओं के समक्ष मंत्राक्षरों को देखने का प्रयत्न करने से क्रोध, ईर्ष्या, आलोचना आदि दुष्प्रवृत्तियाँ क्षीण हो जाती नाद-श्रवण में चित्त लीन होने पर सहज शान्ति का अनुभव होता है। जप में बाह्य-ध्वनि एवं नाद से अन्तर्ध्वनि का अवलम्बन लिया जाता है। नीरव स्थान में ध्यानमुद्रा में आँखें बन्द करके, कान के छेदों को दोनों हाथों की अंगुलियों से बन्द करके अन्तर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करें। अभ्यास में प्रगति होने पर कभी धुंघरु, घंट, शंख, बांसुरी, मेघगर्जना आदि की ध्वनियों जैसी ध्वनि भी सुनाई दे सकती है। त्राटक-ध्यान के माध्यम से भी क्रोध का शमन किया जा सकता है। 9. विचारों का श्वासोच्छ्वास से सीधा और गहरा सम्बन्ध है। श्वासोच्छ्वास की गति जितनी मन्द और लयबद्ध होगी, मन उतना शान्त होगा। क्रोधावस्था में श्वास की गति तीव्र और अनियमित हो जाती है, अतः चित्त स्थिति में परिवर्तन के लिए श्वास-गति को मन्द करने का प्रयास करना चाहिए। 10. विचार–प्रवास का निरीक्षण चित्त-शान्ति का एक सशक्त साधन है। क्रोध कैसे प्रारम्भ हुआ ? कहाँ से प्रारम्भ हुआ ? उसका मूल उद्गम स्रोत कौन-सा कषाय है ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते जाने से मन पर परिस्थिति का प्रभाव समाप्त हो जाता है और विचारों में परिवर्तन स्वाध्याय, चिन्तन, अनुप्रेक्षा आदि के माध्यम से होता है। इस प्रकार, हम 87 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, साध्वी डॉ हेमप्रज्ञा श्री, पृ. 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy