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________________ क्योंकि त्रैकालिक - चिन्तन उन्हीं को होता है। इस संज्ञा वाले प्राणी का बोध एवं व्यवहार स्पष्ट होता है । हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा जिस संज्ञा में कारण को देखकर किसी कार्य का ज्ञान हो जाता है, या जिस संज्ञा द्वारा प्राणी अपने देह की रक्षा हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट मे निवृत्ति करता है, वह हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा है, जैसे गर्मी हो तो छाया में जाना, सर्दी हो, तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिए प्रवृत्ति करना आदि । यह संज्ञा प्रायः वर्त्तमानकालीन एवं व्यवहार की प्रवृत्ति या निवृत्ति - विषयक है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों को अतीत - अनागत की चेतना होती है, फिर भी उनका वर्त्तमान व्यवहार के अतीत एवं अनागत - काल का चिन्तन अति अल्प होता है, अतः वे असंज्ञी हैं। इसी प्रकार, व्यवहार में प्रवृत्ति - निवृत्ति से रहित एकेन्द्रिय जीव भी असंज्ञी ही है । यद्यपि पृथ्वी आदि में भी आहारादि दस संज्ञाओं की विद्यमानता प्रज्ञापनासूत्र में बताई गई है, पर वे संज्ञी नहीं कहलाते हैं, कारण, उनमें ये संज्ञाएं अति अव्यक्त रूप से हैं। जैसे अल्पधन होने से कोई धनवान् नहीं कहलाता, या आकार - मात्र से कोई रूपवान नही कहलाता, वैसे ही आहारादि संज्ञा होने से कोई संज्ञी नहीं कहलाता । वह विमर्शात्मक - चिन्तन से ही संज्ञी कहलाता है, क्योंकि संज्ञीत्व विवेकशीलता का सूचक है, जबकि आहारादि में प्रवृत्ति होना यह संज्ञा का वासनात्मक पक्ष है। दृष्टिवादोपदेशिकी -संज्ञा 16 जिसमें सम्यक्त्व - विषयक प्ररूपणा हो, अथवा आत्म के हित-अहित को दृष्टिगत रखते हुए सम्यक् निर्णय करने की क्षमता हो, वह दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा कहलाती है। इस संज्ञा की अपेक्षा से ही क्षायोपशमिक - ज्ञान या विवेक से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव संज्ञी कहे जाते हैं। मिथ्यादृष्टि सम्यक्ज्ञान से रहित होते हैं, फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के बाह्य - व्यवहार में कोई 15 IU 16 प्रवचनसारोद्धार, गा. 920, संज्ञाद्वार 144 वही, गा. 921 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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