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________________ 292 क्रोध मोहनीय-कर्म के उदय से होता है। इसमें प्राणी के मुख और शरीर में विकृति होना, नेत्र और मुख पर लालिमा और कठोरता आना, दांत किटकिटाना, होंठ फड़फड़ाना, आँखे लाल हो जाना, व्यवहार का आक्रामक हो जाना क्रोध-संज्ञा है। मन तथा इन्द्रियों के प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति के निर्माण में जिस पदार्थ या व्यक्ति का हाथ होता है, उसके प्रति आक्रामक या आवेशात्मक हो जाना क्रोध-संज्ञा है। क्रोध का स्वरूप एवं लक्षण - योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने क्रोध का स्वरूप वर्णित किया है। वे लिखते हैं – क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी है, क्रोध मोक्ष-सुख में अर्गला के समान है।' राजवार्त्तिक में कहा गया है - अपने और पर के उपघात आदि करने के क्रूर परिणाम क्रोध हैं। ___ कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार में कहा गया है कि "शान्तात्मा से पृथग्भूत यह जो क्षमारहित भाव है, वह क्रोध है।'' क्रोध की भयंकरता को उपमाओं के माध्यम से धर्मामृत (अनगार)° में इस प्रकार बताया गया है – क्रोध कोई एक अपूर्व अग्नि है, क्योंकि अग्नि तो मात्र देह को जलाती है, पर क्रोध शरीर और मन -दोनों को जलाता है। क्रोध एक अपूर्व अंधकार है; क्योंकि अन्धकार मात्र बाह्य-पदार्थों को देखने में बाधक है, किन्तु क्रोध तो बाह्य और आंतरिक -दोनों चक्षुओं को बन्द कर (क) प्रवचनसारोद्धार -द्वार 146, सा. हेमप्रभाश्री, पृ. 80. ख) सण्णा : मूलवृत्तियों की जैन अवधारणा - एक लेख, डॉ. ऋषभचन्द जैन, शोधादर्श, जुलाई 2004, पृ. 53 ' योगशास्त्र - प्रकाश 4/गाथा 9 स्वपरोपघातनिरनुग्रहाहिकौर्य परिणामोऽमर्षः क्रोध । - राजवार्त्तिक, 8/9 " शान्तात्मतत्त्वात्पृथग्भूत एष अक्षमारूपो भावः क्रोधः - समयसार/ता.वृ./199/274/12 ० धर्मामृत अणगार / अ.6/श्लोक 4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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