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________________ अतिआरम्भ एवं अतिपरिग्रह के कारण नरकायु का बंध करता है । इसलिए धन, धान्य आदि पर मूर्च्छा ममता रूप परिग्रह का त्याग करना चाहिए । परिग्रह वृत्ति के नियंत्रण के उपाय 1. इच्छा/ मूर्च्छा/ आसक्ति का त्याग करें — - - भगवतीसूत्र में कहा गया है कि - " जब तक राग ( इच्छा) मोह और लोभ (मूर्च्छा / आसक्ति) मन में उत्पन्न होते हैं तब तक ही आत्मा में बाह्यपरिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि होती है । "74 Jain Education International अतः जब तक इच्छा को समाप्त नहीं करेगें तब तक अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिफलन संभव नहीं है । अर्थ या पदार्थों का संग्रह ही परिग्रह नहीं है । मूर्च्छा ममता भी परिग्रह हैं । इच्छाओं को न दबाना है, न उन्हें अनियंत्रित छोड़ना है । अगर दबाया जाय तो कभी भी अवसर पाकर वे और भी उग्रता से उठेगीं। इसलिए उन्हें समझकर ही शमित करना चाहिए। आकांक्षाओं का विवेकपूर्ण शमन हो तो निश्चय ही वे कभी भी नहीं उभरेगी। इसलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है कि – “जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग करता है। 75 यह मेरा है, ऐसी भावना प्राणियों और पदार्थों के प्रति होती है, जैसे मेरी माता, मेरे पिता, मेरा वही वास्तव में अपरिग्रही घर, मेरी भूमि । जो व्यक्ति बुद्धिगत ममत्व को छोड़ देता है, है। भरत चक्रवर्ती छह खण्डों के अधिपति थे । किन्तु शीश महल में पहुंचकर ममत्वबुद्धि का परित्याग कर दिया। छह खण्ड की सम्पत्ति होते हुए भी वे अपरिग्रही थे। समवक्षरण में विराजमान तीर्थंकर परमात्मा की रिद्धि के परिग्रह के आगे तो संसार के सब परिग्रह उनके कारण फीके हैं, परन्तु कषाय ओर मूर्च्छा नहीं होने के कारण नके लिए परिग्रहरूप नहीं है । पुरुषार्थसिदिध्यपाय में अमृतचन्द्र स्वामी कहते 74 "रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा तो तइया धेत्तुं जे गंधे बुद्ध परो कुह ।" 7s आचारांग चूर्णि, पृ. 92 262 - For Personal & Private Use Only भगवती आराधना 19 / 2 www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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