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उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक धन मिलने की आशा ही करता है और दुःखी होता है, क्योंकि दूसरे की अधिक सम्पत्ति देखकर अपनी कम सम्पत्ति में असंतोष मानने से दुःख होता है। अविश्वास भी दुःख का कारण है। अपने द्वारा संचित धन की रक्षा करने हेतु उसे किसी पर भी विश्वास नहीं होता है, इसलिए वह रात को भी सुख से नहीं सोता और दिन को भी चैन से नहीं रहता। धन को गोबर आदि से लीपकर छिपाता है। धन के लिए वह अनेक कृत्य करता है। रिश्वत लेना या देना, झूठी साक्षी देना या दिलाना, झूठ बोलना इत्यादि कृत्य परिग्रह के लिए किए जाते हैं। योगशास्त्र64 में कहा गया है – दुःख के कारणरूप असंतोष, अविश्वास और आरम्भ को भी परिग्रहवृत्ति का फल मानकर परिग्रह पर नियंत्रण करना चाहिए। समयसार मे भी परिग्रह को बंध का कारण माना है। 3. संचयवृत्ति – एक सामाजिक अपराध -
धन से जहां तक हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती हो उसी हद तक वह हमारे लिए उपयोगी है। इसी प्रकार, आवश्यकता से अधिक धन का भी कोई उपयोग नहीं है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उतनी ही सम्पत्ति संकलित करने को उचित ठहराया है, जितने से हमारे सांसारिक दायित्वों का भली प्रकार से निर्वाह हो सके। अधिक परिग्रह और वस्तुओं का अधिक मात्रा में संचय एक सामाजिकअपराध माना गया है। महाभारत में कहा गया है –“जहाँ तक उदरपूर्ति का प्रश्न है या दैहिक आवश्यकता की पूर्ति का प्रश्न, है वहाँ पदार्थों के उपभोग का अधिकार प्रत्एक व्यक्ति को है, लेकिन जो आवश्यकता से अधिक का संचय करता है, वह चोर है। दूसरे प्राणियों को उपभोग से वंचित करके जो संग्रह करता है, वह अनैतिक है,
" असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम्
मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात् परिग्रह- नियंत्रणम्। - योगशास्त्र, गाथा 106 65 एवमलिये अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव।
कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झए पावं तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव ।
कीरदि अज्झवसावं जं तेण दु वज्झदे पुण्णं ।। - समयसार, गाथा. 263-264 (बंध) 66 भागवत - 6/14/8
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