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________________ 245 उसमें, 'यह मेरा है' -इस प्रकार का विचार या भाव होता है। बाह्य-परिग्रह सदा मूर्छा का निमित्त कारण होने से, या, यह मेरा है, ऐसे ममत्वभाव से युक्त होने से परिग्रह कहलाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परिग्रह का मूल लक्षण मूर्छा और संग्रहवृत्ति है। इच्छा और मूर्छा से भरा हमारा मन जहां तक जाता है, वहां तक सब कुछ परिग्रह हो जाता है। जिसके मन में पर पदार्थों के प्रति इच्छा है, मूर्छा का भाव है, उसके लिए सारा संसार परिग्रह है। जिसके मन में ऐसा ममत्व या मूर्छा भाव निकल गया है, संसार में रहते हुए भी, संसार उसका परिग्रह नहीं है। कहा गया है मूच्छिन्न धियां सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्छाया रहितानां तु जगदेवाऽपरिग्रहः ।।49 आज परिग्रह की मूर्छा के कारण असंतोषी मनुष्य अनेक वर्जित दिशाओं में जा रहा है। धन के मद से नित-नई चाह रखने वाला अपने परिवार या परिजनों में कोई नवीनता नहीं देख पाता। उसकी दृष्टि कहीं अन्यत्र होती है। जहाँ व्यभिचार के अवसर नहीं हैं, वहां भी मानसिक-व्यभिचार निरन्तर चल रहा है। जीवन तनावों में कसता चला जा रहा है और जिसके पास जो कुछ भी है, वह उसमें संतुष्ट नहीं है। संसार के किसी भी पदार्थ को लें, किसी भी उपलब्धि पर विचार कर लें, जिसे वह प्राप्त नहीं है, वह उसे पाने के लिए दुःखी है, परन्तु जिसे वह प्राप्त है, वह भी सुखी नहीं है। वह तो किसी और पदार्थ के लिए अपने मन में आकर्षण पाल रहा है। उसी लालसा के कारण परिग्रह और संचयवृत्ति बढ़ रही है और यही वृत्ति परिग्रह है, मूर्छा है। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र'49 में परिग्रह के गुणनिष्पन्न अर्थात् वास्तविक अर्थ को प्रकट करने वाले निम्न तीस नामों का उल्लेख किया गया है - 48 मानवता की धुरी, नीरज जैन, पृ. 94 49 प्रश्नव्याकरणसूत्र - 5/94 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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