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और 'मेरे' का भाव परिग्रह की ओर प्रेरित करता है।2 स्त्री, पुरुष, घर, धन-धान्य, चेतन-अचेतन आदि वस्तुओं के प्रति ममत्व रखना परिग्रह है। अन्य शब्दों में कहें तो ऐसी वस्तुओं के मिलने की खुशी एवं उनके चले जाने का गम-रूपी मूर्छाभाव ही परिग्रह है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है, वे अवश्य परिग्रही हैं, परन्तु जिनके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी चित्त में बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ लिए रहते हैं, वे भी परिग्रही हैं। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है -"मुनि न तो संग्रह करता है, न कराता है और करने वालों का समर्थन भी नहीं करता है। वह पर पदार्थों से पूर्णतया अनासक्त एवं अकिंचन होता है। इतना ही नहीं, वह अपने शरीर से भी ममत्व नहीं रखता है, संयम निर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्प उपकरण अपने पास रखता है, उस पर भी उसका ममत्व नहीं होता है,"24 इसलिए मुनि के पास सामग्री होते हुए भी मूर्छा न होने के कारण वह अपरिग्रही है। जैनाचार्यों ने बार-बार बलपूर्वक कहा है कि न्याय की कमाई से मनुष्य जीवनभर निर्वाह कर सकता है, किन्तु धन का भण्डार नहीं भर सकता। अटूट संपत्ति तो पाप की कमाई से ही प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार नदियाँ जब भरती हैं, तो वर्षा के गन्दे जल से ही भरती हैं। 25 वास्तव में परिग्रह आसक्ति ही है। इस दृष्टिकोण से, धन-वैभव के अपार भण्डार होते हुए भी व्यक्ति अपरिग्रही या अल्प परिग्रही हो सकता है, शर्त यह है कि उसके हृदय में उस वैभव के प्रति अनासक्ति का भाव हो।26
इच्छा-परिग्रह -
कुन्दकुन्दाचार्यविरचित 'समयसार' में इच्छा को परिग्रह कहा गया है। जिसमें इच्छा है, वह परिग्रही है, जिसमें इच्छाएँ नहीं है, वह अपरिग्रही है, क्योंकि इच्छा
2 The feeling of I and mine, are root causes of Infatuation. तत्त्वार्थसूत्र, अनु.- छगनलाल जैन, पृ. 191
सो य परिग्गहो चेयणाचेयणेसु दव्वेसु मुच्छानिमितो भवई। – जि.चू., पृ. 151 24 सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्षणपरिग्गहे।
अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं ।। - दशवैकालिकसूत्र -6/21 25 उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी चन्दना, पृ. 466 26 जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन, देवेन्द्र मुनि, पृ. 324
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