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स्थूलीभद्रजी186 मन से दृढ़ थे, इसलिए ब्रह्मचर्य के महान उपासक बन गए। अपने गृहस्थ-जीवन में स्थूलीभद्रजी कोशा वेश्या के यहां बारह वर्ष तक रहे थे। एक छोटे से निमित्त को पाकर वे संसार के समस्त भोगसुखों को तिलांजलि देकर ब्रह्मचर्य-व्रत में दृढ़ हो गए। उसके बाद उन्होंने कोशा वेश्या के भवन में चातुर्मास किया। वय, ऋतु, भोजन आदि सब अनुकूल होने पर भी मन की दृढ़ता के कारण उनमें लेश-मात्र भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। उनको पतित करने के लिए कोशा ने अपने सब प्रयत्न कर लिए, परन्तु वह निष्फल ही रही। अन्त में वह भी व्रतधारी श्राविका बन गई। अपने ब्रह्मचर्य के व्रत के कारण चौरासी चौबीसी तक इतिहास के पन्नों पर स्थूलीभद्र का नाम अंकित रहेगा।
2. मंत्र जाप -
मन का रक्षण करे, वह मंत्र कहलाता है। जहाँ-तहाँ भटक रहे अपने मन को मंत्र के द्वारा केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए। नमस्कार–महामंत्र अथवा नेमिनाथ प्रभु आदि के मंत्र-जाप से अपने मन को स्थिर करने से मन के अशुभ विचार स्वतः दूर हो जाएंगे, फलस्वरुप ब्रह्मचर्य-पालन में दृढ़ता आएगी। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नवकार–महामंत्र के प्रभाव से सेठ सुदर्शन187 की सूली सिंहासन बन गई, देव-दुन्दुभि बजने लगी, शील की सुगन्ध फैलने लगी, सदाचार की वाणी मुखरित हो उठी, आकाश से फूल बरसने लगे, क्योंकि सुदर्शन श्रावक ने परस्त्री के पास रहने पर भी निष्कलंक मनोवृत्ति रखी और अपने ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहे।
3. आत्म-ध्यान का चिंतन -
आत्मा स्वयं निर्विकार चैतन्यस्वरुप है। अवकाश के समय में आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरुप का ध्यान करने से मन की अशुभ वृत्तियाँ विलीन हो जाती हैं। अपनी
186 उपदेशमाला, गाथा 59 187 अकलंकमनोवृत्तेः परस्त्रीसन्निधावपि।
सुदर्शनस्य किं ब्रमः सुदर्शनसमुन्नते।। - योगशास्त्र, गाथा 101
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