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धधकती हुई आग है, जिसमें तपकर आत्मा कुन्दन की तरह दमकने लगती है, ऐसी अद्भुत औषध है, जिससे अपूर्व बल प्राप्त होता है। परमात्म-तत्त्व के दर्शन करने के लिए विकारों का दमन करना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य जहाँ बाह्य-जगत् में हमारे तन को स्वस्थ रखता है, वहाँ अन्तर्जगत् में विचारों को भी विशुद्ध रखता है। मानव-जीवन में ब्रह्मचर्य की साधना के बिना सर्वांगीण विकास संभव नहीं होता है।
जब मन में वासनाएँ उत्पन्न होती है, तब चित्त का विचलन बढ़ जाता है और जीवन का विकास रुक जाता है। इसीलिए कहा गया है कि साधक सुखाभिलाषी होकर काम-भोगों की कामना न करे, प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त जैसा कर दे, अर्थात् उपलब्ध भोगों के प्रति भी निःस्पृह रहे ।124
मानव का तन सामान्य तन नहीं है। वह बहुत ही मूल्यवान् है। इस शरीर का यदि सदुपयोग करे, तो वह नर से. नारायण बन सकता है, इन्सान से भगवान् हो सकता है। पर मानव का अत्यन्त दुर्भाग्य है कि युवावस्था प्रारम्भ होते ही उसमें वासना की आग सुलगने लगती है। वह उस पर नियन्त्रण नहीं कर पाता। वातावरण की वायु से यह आग और भड़क उठती है, जिससे उसके शरीर का तेज और ओज धूमिल होने लगता है। विकास की जो कल्पनाएँ उसके अन्तर्मानस में पनपती हैं, वे कल्पनाएँ वासनाओं की चिनगारी से भस्म हो जाती हैं, वह प्रगति नहीं कर पाता, इसलिए भारत के तत्त्वदर्शी महर्षियों ने ब्रह्मचर्य पर अधिक बल दिया है। उन्होंने कहा है कि ब्रह्मचर्य जीवन को सुन्दर, सुन्दरतर और सुन्दरतम बनाता है।
सूत्रकृतांगसूत्र125 में ब्रह्मचर्य को सभी तपों में श्रेष्ठ माना गया है। उसी प्रकार ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठतम व्रत माना है।126 अत्यन्त दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले ब्रह्मचारी को तो देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी नमस्कार करते हैं।127
124 कामी कामे न कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुई। – सूत्रकृतांगसूत्र – 1/2/3/6 125 तवेसु वा उत्तम बंभचेरं – वही 1/6/23 126 एस धम्मे धवे निअए, सासए जिणदिसिए।
सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे। - उत्तराध्ययनसूत्र 16/17 127 वही - 16-16
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