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________________ 188 25. समस्त लेश्याओं में शुक्ललेश्या के समान व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। 26. मुनियों में जैसे तीर्थकर उत्तम हैं, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत उत्तम है। 27.क्षेत्रों में महाविदेहक्षेत्र की तरह ही व्रतों में ब्रह्मचर्य उत्तम है। 28. पर्वतों में गिरिराज सुमेरु की भांति व्रतों में ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम व्रत है। 29. जैसे समस्त वनों में नन्दन वन प्रधान है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। 30. जैसे समस्त वृक्षों में सुदर्शन जम्बु-वृक्ष प्रधान है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। 31. जैसे अश्वाधिपति, गजाधिपति और रथाधिपति राजा विख्यात होता है, उसी प्रकार व्रताधिपति ब्रह्मचर्य विख्यात है। 32. जैसे रथिकों में महारथी राजा श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार, एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गुण स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से इहलोक और परलोक-सम्बन्धी यश और कीर्ति प्राप्त होती है, अतएव एकाग्र-स्थिर चित्त से तीन करण और तीन योग से विशुद्ध सर्वथा निर्दोष ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। __ प्राचीन साहित्य का अनुशीलन व परिशीलन करने पर यह ज्ञात होता है कि 'ब्रह्म' शब्द के मुख्य रुप से तीन अर्थ हैं - ब्रह्म – वीर्य है। . ब्रह्म - आत्मा है। ब्रह्म - विद्या है। "चर्य' शब्द के भी तीन अर्थ हैं – रक्षण, रमण और अध्ययन। इस प्रकार, ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हुए - 1. वीर्यरक्षण, 2. आत्मरमण और 3. विद्याध्ययन । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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