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________________ अचेतन मन के साथ सूक्ष्म - शरीररूप कर्म और संस्कार जुड़े हुए हैं । यही संस्कार अनुवांशिकता और जीन्स के सिद्धान्तों को समझने में सहयोगी बनते हैं । जैनदर्शन में राग-द्वेष भावों का जन्म इसी कर्म - चेतना ( अचेतन मन ) से ही होता है । आचारांगसूत्र में 'अणेगचित्त खलु अयं पुरिसे, अर्थात् वासनाओं के कारण यह चित्त अनेक भागों में विभाजित हो जाता है । यह कथन चित्त की यथार्थता को 101 अभिव्यक्त करता है, जो मनोविज्ञान का प्रस्थापक बिन्दु है । यही चित्त कर्मचेतना को उत्पन्न करता है। उसमें कुछ प्रशस्त होती है और कुछ अप्रशस्त । चेतन मन को विवेक के कारण वासनाओं से संघर्ष करना पड़ता है। कभी इन इच्छाओं का, कामवृत्ति का निरसन भी किया जाता है और कभी विवेक के माध्यम से पुनः अचेतन मन में भेज दिया जाता है। 181 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनदर्शन की मैथुन - संज्ञा और फ्रायड की काम-संज्ञा अर्थात् लिबिडो व्यावहारिक रूप से समान है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक फ्रायड यह कहता है कि कामवासना का दमन या मनोनिग्रह मानसिक - स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। यही नहीं, इच्छाओं और वासनाओं के दमन में जितनी अधिक तीव्रता होती है, वे दमित वासनाएँ उतने ही वेग से विकृत रुप में प्रकट होकर केवल अपनी ही पूर्ति का प्रयास ही नहीं करती है, वरन् मनुष्य के व्यक्तित्व को भी विकृत बना देती है, परंतु जैनधर्म ब्रह्मचर्य की आराधना के द्वारा मैथुनसंज्ञा / कामवासना को दमित करने और मुक्ति को प्राप्त करने के मार्ग को प्रशस्त करता है। 101 आचारांगसूत्र, 3/1/42 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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