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भविष्य से डरने लगता है, जबकि अचौर्य की साधना व्यक्ति को हर प्रकार के भय से या छल-प्रपंच से मुक्त करती है।
4. मैथुनविरमण-व्रत -
मैथुन का मतलब है - दो का योग या दो का निकाय। सभी अपने एकाकीपन से डरते हैं, इसीलिए साथी बनाने के लिए लालायित रहते हैं। व्यक्ति साथी को पाकर काल्पनिक आश्वासन प्राप्त करता है, जबकि दूसरा व्यक्ति, चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने एकाकीपन से भयभीत होने के कारण ही संबंध बनाता है। सारे रिश्ते-नाते, भीड़ एकत्रित करना - ये सब डर के कारण ही होते हैं। अपने चारों
और भीड़ को देखकर खुश होना भी एकाकीपन के भय का ही एक रूप है, भयग्रस्त मानसिकता का प्रतीक है। जो अभय है, वही अकेला रह सकता है। जो अभय है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है। आचारांग में कहा है - जो साधक कामनाओं को पार गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं।” संसार का सारा अब्रह्मचर्य डर के कारण है, पर-पासंड में रमण ही डर के कारण है, अतः एक डर को जानने
और उससे मुक्त होने के लिए ही भगवान् ने मैथुन-व्रत की साधना साधकों को प्रदान की। मैथुन-विरमण के द्वारा साधक धीरे-धीरे अपने यथार्थ एकाकी स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर पाता है और एक बार यदि वह अपने एकाकीपन में रमण कर पाए, तो फिर भय रहा ही कहाँ ? निज आनन्द का अनुभव उसे समस्त भयों से मुक्त कर देता है।
5. परिग्रहविरमण-व्रत -
परिग्रह, अर्थात् संग्रह की वृत्ति। संग्रह की सारी दौड़ भय के कारण है। आदमी सुरक्षा चाहता है और इसलिए सुरक्षा के साधन एकत्रित करता है, संग्रह करता है। यह संग्रहवृत्ति भविष्य की असुरक्षा के भय से ही पैदा होती है। चाहे वह संग्रह जीवों का हो, अथवा अजीवों का, व्यक्तियों का हो अथवा वस्तुओं का हो, भयजन्य ही है। इन्सान संतान उत्पन्न भी इस भावना से आक्रान्त होकर करता है
47 विमुक्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिओ। - आचारांग, 1/2/2
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