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________________ 109 अच्छा भोजन देता पर उसने उस बकरे के पिंजरे के सामने शेर का पिंजरा रखवा दिया। इससे वह बकरा (जीव) सदा भयभीत बना रहा और सम्यक् प्रकार से खाते हुए भी वह शक्तिहीन ही बना रहा। 8. प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है - "भयभीत व्यक्ति तप और संयम की साधना छोड़ बैठता है, भयभीत व्यक्ति किसी भी गुरुतर दायित्व को नहीं निभा सकता है। 9. भय के संवेग में हमारी विभिन्न ग्रंथियों से जिन-जिन रसों को स्राव होता है, वह हमारे शरीर को प्रभावित करता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि भय से न केवल मानसिक व शारीरिक-स्तर प्रभावित होता है, अपितु भय सामाजिक-स्तर पर भी प्रभावित करता है। भय के कारण पारस्परिक-विश्वास समाप्त हो जाता है और व्यक्ति हिंसक व आक्रामक बन जाता है, अतः भयमुक्त जीवन में ही सामाजिक-संबंधों की मधुरता रह सकती है। जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा तथा उसका विश्लेषण - संसार के प्रत्येक प्राणी में 'भयसंज्ञा' कम या अधिक मात्रा में अवश्य पाई जाती है। किसी-न-किसी रूप से सभी प्राणी भयग्रस्त बने रहते हैं। जैन-ग्रन्थों में कहा गया है कि स्वर्ग के देव भी अपने च्यवन (मृत्यु) काल को जानकर भयभीत हो जाते हैं। मनुष्य अकेला रहने से कतराता है, अतः निरंतर 'पर' में उलझा रहता है। 'पर' की कांक्षा (इच्छा) जीव को भूत एवं भविष्य में उलझाए रखती है। वह स्वयं में जी ही नहीं पाता है और उसकी यह 'पर' की कांक्षा कभी समाप्त नहीं होती है। भूत की जानकारियों एवं अनुभव आदमी में भविष्य के प्रति भी भय उत्पन्न करता है। भयाकुल व्यक्ति ही भूतों का शिकार होता है, जैसे -आदमी गरीबी से 6 भीतो तव संजमं पि हु मुएज्जा। भीतो य भरं न नित्थरेज्जा।। - प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/2 7 भीतो भूतेहिं छिप्पइ। - प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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