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आत्मा का स्वभाव अणाहारी है। आहार ग्रहण करना तो शरीर का कार्य है। अणाहारी पद को प्राप्त करने का अभ्यास एवं आहार-संज्ञा को कम करना ही तप कहलाता है। जैनाचार्यों ने तप के बारह प्रकारों में – अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग आदि छह तप ब्राह्य तप कहलाते हैं। निराहारी –पद की प्राप्ति के लिए यह आदर्श स्वरूप है। इसलिए दशाश्रुतस्कन्ध में कहा है – “जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियों का विजेता है, सभी प्राणियों के प्रति रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते हैं।"
अतः, निराहारी-पद को प्राप्त करना एक उच्च साधना है। इसके लिए अवश्यमेव आहार-संज्ञा को त्यागना होगा। यदि आहार-संज्ञा आंशिक शान्ति है तो निराहारी-पद पूर्ण शाश्वत शक्ति की अभिव्यक्ति है। आहार जीवन का आदि है, तो अणाहार अन्त ......... ।
8 अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेति ताइणों। - दशाश्रुतस्कंध – 5/4
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