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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में भक्ष्य - अभक्ष्य की विवेचना का मूल उद्देश्य सात्विक और संयमित जीवन से है । व्यक्ति जीवन भर भोजन करता है, किन्तु उसे भोजन के सम्यक् स्वरूप के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी होती है । केवल उदरपूर्ति के लिए जैसा तैसा, जब चाहे तब भक्ष्य - अभक्ष्य, दिन-रात का ध्यान रखे बिना खाने वाला व्यक्ति पेट को भारी बनाता है, बीमारियों से दुःखी होता है और असमय ही वृद्ध हो जाता है। भोजन के सम्बन्ध में जैनदर्शन में, भारतीयदर्शन में, अन्य दर्शन में एवं ऋषि-मुनियों, वैद्यों, चिकित्सकों आदि ने बहुत सारी जानकारियाँ दी है और हमारी संस्कृति में भी सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही परम्पराएँ भी भोजन के संबंध में वैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी आधार लिए हुए हैं। खेद इस बात का है कि पश्चिम की नकल में हम अपने विवेक का उपयोग नहीं करते हुए अन्य बातों की तरह आहार के संबंध में भी केवल अन्धानुकरण करते रहते हैं । " आहार के नियमों का अज्ञान, अति आहार और गरिष्ठ आहार – ये तीनों ही सूत्र जीवन के शत्रु हैं। जीवन के सौंदर्य को बनाए रखने के लिए जीवन-शक्ति को बढ़ाने के लिए हितकर और परिमित आहार का सेवन करना चाहिए। 7
विश्वविख्यात डॉ. मेडफेडन ने बताया है - "भोजन के अभाव से संसार में जितने लोग भूख से पीड़ित होकर मरते हैं, उससे कहीं अधिक मानव अनावश्यक अतिमात्रा में भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरण को प्राप्त होते हैं ।"
दीर्घजीवन को प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र
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हल्का, सात्विक, सुपाच्य और शाकाहारी भोजन है। हमें भोजन कब और कितनी मात्रा में करना चाहिए ? इसका विवेक मानव ने पूर्ण रूप से खो दिया है, इस कारण सात्त्विक भोजन भी अभक्ष्य बन जाता है। इसकी विवेचना हमने रात्रिभोजन के संबंध में की थी। आज विवेक - शून्य कहे जाने वाले पशु भी भोजन की मात्रा के विषय में विवेक रखते हैं, जैसे गाय, चिड़ियाँ अन्य पशु पेट भर जाने
87 पहला सुख निरोगी काया चन्दलमल "चांद"
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