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________________ माध्यम से ही अपनी अभिव्यक्ति पाते हैं। इसलिए जैनदर्शन में यह माना गया है कि मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवृत्तियाँ ही आश्रव का हेतु हैं और इस आश्रव से ही कर्मबंध होता है। जैसे-जैसे मन, वचन, काय के योग (संघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है। योगचक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में बंध (तनाव) का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैनदर्शन यह मानता है कि मन और शरीर यह दो अलग-अलग अवस्थाएं हैं, फिर भी जैन कर्म-सिद्धांत में प्राचीनकाल से ही यह माना गया है कि जड़कर्म का प्रभाव हमारी चेतना पर और चेतना का प्रभाव जड़कर्मों पर होता है। ___ मन और शरीर वस्तुतः दो स्वतंत्र तत्त्व होने पर भी वे एक-दूसरे को प्रभावित करते ही हैं। गेस्ट्राल नामक मनोवैज्ञानिक ने यह माना था कि -शारीरिक परिवर्तन व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करते हैं और चेतना के द्वारा शारीरिक परिवर्तन होते हैं। जैसे मादक द्रव्यों के सेवन से चेतना प्रभावित होती है तो दूसरी ओर मानसिक विचारों का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। चिंताग्रस्त व्यक्ति दुबर्ल होता जाता है। इस प्रकार जैनदर्शन मन, वाणी और शरीर तीनों पारस्परिक प्रभावशीलता को स्वीकार करके चलता है और इसलिए वह यह मानता है कि आत्मशुद्धि के लिए मनशुद्धि और वचनशुद्धि आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तनाव एक मानसिक स्थिति होकर भी अपनी अभिव्यक्ति तो वाणी और शरीर से ही प्राप्त करता है, अतः मन को संयमित करने के लिए शारीरिक गतिविधियों व वाणी को भी संयमित करना आवश्यक है। मन संयमित होगा तो व्यक्ति तनावमुक्त होगा। 55 जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो निरूद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे – बृह. भा. 3926 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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