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इन राग-द्वेष एवं तद्जन्य कषायों के स्वरूप की चर्चा हम आगे करेंगे। जैसा कि हम जानते है राग-द्वेष तनाव की उत्पत्ति का मूल कारण है। वस्तुतः राग-द्वेष के कारण कषायों का जन्म होता है और कषायों के कारण तनाव उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेष एवं कषाय का सहसम्बन्ध बताते हुए उमास्वाति ने प्रशमरति नामक ग्रन्थ में लिखा है कि -"राग एवं द्वेष कषाय के दो भेद है।"58 इन्हीं राग-द्वेष से काषायिक वृत्तियों का जन्म होता है और व्यक्ति स्व-स्वभाव को भूल कर "पर" में आसक्त होता है। "पर' के प्रति आसक्ति के निमित्त से राग और राग के निमित्त से द्वेष वृत्ति जाग्रत होती है। व्यक्ति परिजनों एवं स्वजनों आदि के प्रति 'मेरेपन' का भाव बना लेता है तथा जिनसे राग होता है
और उनके विरोधियों के प्रति परायेपन का भाव बनाता है, जिससे द्वेष होता है। व्यक्तियों के साथ-साथ वह वस्तुओं पर भी 'मेरे' एवं पराये का भाव करने लगता है शरीर और इन्द्रियों को अपना मानकर उनके प्रति राग भाव रखता है। इसी रागवश व्यक्ति कई प्रकार पाप कर्म करता हुआ दुःख एवं परिताप को भी प्राप्त होता है। अपनों के वियोग की चिन्ता के दुःख को भी हम तनाव का ही एक रूप कह सकते हैं।
इस राग भाव को ही किसी व्यक्ति वस्तु के प्रति आसक्ति कहा जाता है और यही राग भावना व्यक्ति में कषाय की वृत्ति को जन्म देती है। अपनी इन्द्रियों की विषय-वासना की पूर्ति हेतु एवं स्वजनों एवं परिजनों की आसक्ति हेतु व्यक्ति क्या-क्या नहीं करता। सारा जीवन भोगों की आकांक्षा या तृष्णा में बिता देता है अंत में तनावयुक्त या उद्विग्न अवस्था में ही मरण को प्राप्त करता है। आचारांगसूत्र में भी तनाव का मूल कारण इन्द्रियो के विषय-भोगों की वासना तथा तद्जन्य कषायों को ही बताया गया है। उसमें वर्णित है कि -"इन्द्रियों के विषयों का अभिलाषी महान् परिताप एवं दुःख का अनुभव करता है। व्यक्ति राग द्वेष के वशीभूत हुआ, तनाव की स्थिति को उत्पन्न करता है। यह मेरी माता है, यह मेरी बहन है, यह मेरा भाई है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी
58 प्रशमरति-उमास्वाति श्लोक - 31
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