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________________ 357 सम्पर्क होने पर उनमें से कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष का जन्म होता है और ये राग-द्वेष तनाव उत्पत्ति के मूलभूत हेतु हैं, यह भी हम पूर्व में दिखा चुके हैं, अतः तनावमुक्ति के लिए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। इन्द्रियों पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसकी भी व्याख्या भी कुछ सूत्रों के माध्यम से इसी अध्याय में की गई है। कषाय विजय और तनावमुक्ति – कषाय का क्षेत्र इतना व्यापक है कि व्यक्ति चाहकर भी कषायों से बच नहीं पाता है और परिणामस्वरूप तनावग्रस्त हो जाता है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों में से कोई एक भी कषाय व्यक्ति के जीवन में आ जाता है तो व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। कषाय भाव से युक्त व्यवहार करने वाला व्यक्ति न स्वयं प्रसन्न रहता है न ही दूसरों को प्रसन्न रख सकता है। कषाय रूपी अग्नि स्वयं का भी जलाती है और दूसरों को भी जलाती है, अतः इस शोध-ग्रन्थ के मूल लक्ष्य तनावमुक्ति को ध्यान में रखते हुए कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए अनेक आगमिक सूत्रोंका निर्देश भी प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के इस षष्टम् अध्याय में किया गया है। लेश्या परिवर्तन और तनावमुक्ति - जैनधर्म भावना प्रधान धर्म है। व्यक्ति के भाव ही उसे ऊपर उठाते हैं और भाव ही तनावग्रस्तता का कारण बनते हैं। जैसे हमारे भाव बनते हैं, वैसी ही हमारी लेश्या बनती है और जैसी हमारी लेश्या होती है, वैसा ही हमारा व्यवहार बनता है। जैसा हमारा व्यवहार होगा वैसा ही व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। इन लेश्याओं के स्वरूप का विवेचन तो चतुर्थ अध्याय में किया गया था, प्रस्तुत अध्याय में लेश्या परिवर्तन से व्यक्ति के भावों में कैसे परिवर्तन किया जा सकता है व उसे तनावमुक्त बनाया जा सकता है, इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। तनावमुक्ति के लिए ध्यानविधि को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है। ध्यान विधियों के अन्तर्गत विपश्यना या प्रेक्षा ध्यान की विधि सबसे अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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