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________________ लेश्या परिवर्तन से तनावमुक्ति लेश्याओं के परिवर्तन करने की प्रक्रिया ही सही रूप में तनावमुक्ति की प्रक्रिया है! जैनधर्म भावना प्रधान धर्म है । लेश्या का सिद्धांत भी भावों पर ही निर्भर है। जैसे भाव होते हैं, वैसी ही उसकी लेश्या होती है। भाव परिवर्तन के साथ ही लेश्या परिवर्तन होता है, साथ ही लेश्या परिवर्तन से भी भाव परिवर्तन हो सकता है। दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं । भाव शुभ या शुद्ध हो तो लेश्या स्वतः ही शुभ या शुद्ध हो जाती है। जैनदर्शन में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। राजा प्रसन्नचंद्र ने सारा राजपाट छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली । एक समय जब वे ध्यान में खड़े थे, तब उधर से राजा श्रेणिक अपनी सेना के साथ भगवान् महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे, तभी एक सैनिक ने कहा - देखो यह वही राजा हैं, जिसने अपने पुत्र को अल्प आयु में छोड़कर दीक्षा ले ली और अब मंत्रीगण उस बालक को मारकर राज्य हड़पने की साजिश कर रहे हैं। इधर राजा श्रेणिक ने भगवान् महावीर को वन्दना करके पूछा कि मुनि प्रसन्नचन्द्र काल करके कहाँ जाएंगे, तब प्रभु ने कहा कि अगर अभी काल करे तो सातवीं नरक में जाएंगे। राजा ने पुनः प्रश्न किया - प्रभु ! उन्होंने तो धर्म आराधना की है, तो वे नरक में क्यों जाएंगे? तब भगवान ने कहा कि अगर अब काल करे तो सर्वाथसिद्ध देव बनेंगे। यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ, इतने में देवदुंदभी बजी, तब प्रभु ने कहा - मुनि प्रसन्नचंद्र केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध हो गए । राजा ने आश्चर्य से इसका कारण पूछा, तब प्रभु ने कहा - जब तुमने पहला प्रश्न किया तब मुनि भावों से युद्ध कर रहा था, उसके मन में यह विचार चल रहा था कि मेरे मंत्रियों ने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं उन सबका संहार कर दूंगा। अगर उस समय काल करते तो सातवीं नरक में जाते। जैसे ही उन्होंने अपना मुकुट ठीक करने के लिए हाथ उठाया तो विचार आया ओहो ! मैं तो मुनि हूं और पश्चाताप के कारण विशुद्ध भाव आए तब मैंने कहा सर्वार्थसिद्ध देव बनेंगे। पश्चाताप करते-करते उन्हें केवलज्ञान हो गया और सिद्ध हो गए और पंचम गति को प्राप्त हो गए। जैसे भाव होते हैं, वैसी ही लेश्या बनती है । Jain Education International ---- 330 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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