SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैत्तसिक अवस्थाओं के प्रति सजग बनाया जाता है और जब चेतना ज्ञाता-द्रष्टा, सजग या अप्रमत्त हो जाती है तो विकल्प विलीन (शून्य) होने लगते हैं, क्योंकि सजगता या अप्रमत्त (ज्ञाता-द्रष्टाभाव) दशा में रहना और विकल्प करना, ये दोनों एक साथ सम्भव नहीं हो सकते। चेतना जब विकल्पों से जुड़ती है तो नियमतः प्रमत्त दशा को प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में एक छोटा सा प्रयोग कर सकते हैं - मान लीजिए कि हमें सौ श्वासोच्छश्वास की विपश्यना या प्रेक्षा करनी है, तो इस स्थिति में हम उन श्वासोश्वास को देखते हुए सौ तक की गिनती पूरी करें। इस काल में यदि हम किसी विकल्प से जुड़ते हैं, तो श्वासोच्छश्वास के प्रति सजगता नहीं रहती है और गणना खण्डित हो जाती है, इसलिए जैन परम्परा में ध्यान को श्वासोच्छश्वास की गणना से जोड़ा गया है। आवश्यकनियुक्ति में स्पष्टतः यह कहा गया है कि साधक को चित्त विशुद्धि के लिए श्वास-प्रश्वास का ध्यान करना चाहिए। 100 सूयगड़ो में भी मुनि को तनावमुक्ति और सजगता के लिए या विहार में भी मन की चंचलता को रोकने के लिए कहा है कि -वह श्वास को शान्त और नियंत्रित कर विहार करे।101 श्वास-प्रश्वास के प्रयोग से जो परिणाम प्राप्त होता है, उसे बताते हुए आयारो में लिखा है -"सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए' श्वास को नियंत्रित और शांत करने वाला दुःख मात्र से स्पृष्ट होने पर भी व्याकुल नहीं होता। 102 यह एक अनुभूतिजन्य तथ्य है कि आत्म सजगता, अप्रमत्तता या साक्षी भाव में रहना और विकल्प करना, ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। यदि ध्यान के माध्यम से विकल्प समाप्त होते हैं तो यही समझा जाएगा कि उससे तनाव भी समाप्त होते 100 आवश्यक नियुक्ति - 15/4 101 सूयगड़ो -1/2/52, देखें टिप्पण अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। विहरेज्ज समाहितिदिए आतहितं दुक्खेण लब्भते।। 102 आयारो -3/69, या देखें -प्रेक्षाध्यान : आगम और आगमोतर स्रोत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy