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________________ _312 रूप में मूर्च्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है ? वह संभोगकाल में भी अतृप्त रहता है। रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपयोग के समय भी वह दुःख पाता है। ___ श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को ग्रहण करने वाली और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है। जिस प्रकार राग में गृद्ध मृग मारा जाता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में मूर्च्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है। मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वशवर्ती भारी कर्मी जीव अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है। शब्द में मूर्च्छित जीव मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह संभोग काल के समय में भी अतृप्त ही रहता है, फिर उसे सुख कहाँ हैं ? तृष्णा के वश में पड़ा हुआ वह जीव चोरी करता है तथा झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता है और दुःख से नहीं छूट पाता। इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के संदर्भ में भी समझना चाहिए। इन इन्द्रियों के वशीभूत होकर व्यक्ति की चिंता, दुःख, परिताप देना, चोरी, झूठ, कपट आदि वृत्तियाँ तनाव उत्पन्न करती हैं या यह कहें कि ये सब तनाव के ही हेतु हैं। गीता में भगवान् कृष्ण ने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि जिस प्रकार जल में नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मन-सहित विषयों में विचरती 68 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/28 69 वही - 32/32 70 वही - 32/36 " वही - 32/37 2 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/40 73 वही - 32/40 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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