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________________ 301 अनेकांतवाद को हम तीन उधारों पर समझ सकते हैं - प्रथम, प्रत्येक यस्तु या सत् में अनेक गुणधर्म हैं। दूसरे – प्रत्येक वस्तु में विरोधी गुणधर्म भी होते हैं। तीसरे -वस्तु की अनेकांतिकता। . वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता को हम कई उदाहरणों से समझ सकते हैं। जैसे --सोने को एक अंगूठी का आकार दिया जाए तो वह अंगूठी कहलाती है, किन्तु उसमें अंगूठी के साथ-साथ सोने की होने का भी गुण विद्यमान रहता है। एक ही व्यक्ति किसी का पिता, तो किसी का पति होता है। एक ही व्यक्ति में चाचा, मामा, भाई, भतीजे आदि अनेक रिश्ते सम्भव है। व्यक्ति के ये सभी रिश्ते अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं, उसमें से किसी एक का भी निषेध नहीं किया जा सकता है। इसी तथ्य का समाधान करते हुए आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं कि -"मनुष्य जब राग-भावना से प्रेरित होकर किसी वस्तु को देखता है, तब वह वस्तु उसे दूसरे रूप में दीखती है और जब वह उसी वस्तु को द्वेष-भावना से प्रेरित होकर देखता है तब वह दूसरे रूप में दीखती है। 53 वस्तु एक है पर राग-द्वेष के कारण रूप बदल जाता है। दोनो ही रूप सही हैं। यही अनेकांतवाद की अनन्तगुणात्मक दृष्टि है। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक या बहुआयामी है, अतः उसके प्रत्येक पक्ष की सम्भावनाओं को स्वीकार करना आवश्यक है और यह बात एक सर्वांगीण दृष्टि से ही सम्भव है। यह सर्वांगीण या व्यापक दृष्टि ही तनाव प्रबन्धन की सफलता का मूल सूत्र है। तनाव प्रबन्धन या तनावमुक्ति के लिए भी इस दृष्टि का विकास आवश्यक है। दूसरे स्वरूप में अनेकांतवाद परस्पर विरोधी विचारधाराओं के समन्वय का प्रयास करता है। डॉ. सागरमलजी जैन का कहना है कि -"वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता में उसकी बहुआयामिता और उसकी बहुआयामिता में उसकी अनन्तधर्मात्मकता सन्निहित है। यह एक सत्य है कि वस्तु में न केवल विभिन्न अनेकांत है तीसरा नेत्र - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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