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की हिंसा तनावपूर्ण स्थिति में ही होती है और यह तनावपूर्ण स्थिति स्वयं अपने आप में हिंसा ही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तनावों का मूल कारण तो स्व स्वरूप की हिंसा है। इस प्रकार हिंसा का सिद्धांत तनाव उत्पत्ति का मूलभूत कारण है, जबकि अहिंसा का सिद्धांत तनावमुक्ति का कारण है। जैनदर्शन के अनुसार तनावों से निवृत्ति ही अहिंसा है और तनावों की प्रवृत्ति ही हिंसा है । अतः तनाव मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए व्यक्ति को हिंसा का परित्याग करना होगा, क्योंकि बिना अहिंसा के तनावमुक्ति सम्भव नहीं है।
आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'आतुरा परितावेंति 47, अर्थात् आतुर व्यक्ति अर्थात् तनावग्रस्त व्यक्ति ही दूसरों को कष्ट देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हिंसा का जन्म तनावपूर्ण स्थिति में होता है। जहाँ हिंसा है, वहाँ तनाव है। आचारांगसूत्र में दुःख (तनाव) का कारण हिंसा को ही बताया है। लिखा है - "आरंभजं दुक्खमिणं *48 यह सब दुःख आरम्भज है, हिंसा में से उत्पन्न होता है । "कम्ममूलं च जं छणं 49 अर्थात् कर्म का मूल अर्थात् हिंसा है। जो कर्म का मूल है, वही तनाव का भी हेतु है । कर्मबन्ध की जो स्थिति है, वही तनावयुक्त अवस्था की भी है। यह आरम्भ (हिंसा) ही वस्तुतः ग्रन्थ बन्धन है, यही मोह है, यही मार - मृत्यु है और यही नरक है। " अतः तनावमुक्ति अहिंसा की स्थिति में ही संभव है। अहिंसक चेतना ही तनावमुक्त होती है, हिंसक चेतना के मूल में कहीं ना कहीं भय रहा हुआ है और भय एक तनाव है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - यदि तुम अभय चाहते हों तो दूसरों को भी अभय प्रदान करो । भय हिंसा है और अभय अहिंसा है। भययुक्त चित्त ही हिंसा को जन्म देता है । व्यक्ति ने भय के कारण ही हिंसक शस्त्र बनाए हैं भय के कारण ही असत्य
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47 आचारांगसूत्र - 1/1/6
48 वही - 1/3/1
वही
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'एस खलु गंथे एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु षारएं। - आचारांगसूत्र - 1/1/2
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