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परिग्रह - संचय बुद्धि का आधार 'पर' होता है। जहाँ संचय बुद्धि होती है, वहाँ कभी-कभी व्यक्ति उसके उपयोग से भी वंचित रहता है। जैसे कृपण व्यक्ति धन संचय तो करता है, पर उसका उपयोग नहीं कर पाता है।
"कण संचय किड़ी करे,
ते तितर चुग जाए जो कृपण धन संचिये यूँ ही जाए विलाय'
आचार्य भिक्षु के इस कथन का मूल आधार आचारांगसूत्र है। उसमे कहा गया है कि -व्यक्ति धन का संचय करता है, लेकिन वह संचित धन या तो परिजनों के द्वारा बाँट लिया जाता है अथवा राजा के द्वारा उसका अपहरण कर लिया जाता है अथवा चोर चोरी करके ले जाता है अथवा अग्नि आदि से नष्ट हो जाता है। इसलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति धन का संचय करता है, वह उसका उपभोग भी नहीं कर पाता है। धन के संचय के साथ रक्षण की वृत्ति काम करती है और जहाँ रक्षण की वृत्ति होती है, वहाँ अंतस में भय होता है
और जहाँ भय है, वहाँ तनाव है ही और इसी प्रकार संचित धन के नष्ट हो जाने का भय, छीन लिए जाने का भय, तनाव ही है। जो व्यक्ति ममत्व वृत्ति रखता है, वह निश्चय ही उसके संरक्षण एवं उसको विनाश से बचाने आदि के लिए सदैव चिन्तित रहता है और जहाँ चिन्ता है, वहाँ तनाव है। इसलिए तनावों से मुक्ति अपरिग्रह से ही सम्भव है। परिग्रह वृत्ति से बचने के लिए कुछ सूत्र निम्न हैं – 1. भगवती आराधना में कहा गया है कि जब तक राग (इच्छा) मोह और
लोभ (मूर्छा/आसक्ति). मन में उत्पन्न होती रहती है, तब तक ही आत्मा
38 आचारांगसूत्र -
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