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________________ 292 यही ममत्वबुद्धि, आसक्ति या तृष्णा दुःख का या कर्मबंध (तनाव) का कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इच्छा या आसक्तिपूर्वक ग्रहण किए आहार को भी परिग्रह कहा है। इच्छाएँ तभी होती है जब उस इच्छित वस्तु के प्रति राग या आसक्ति हो। दूसरे शब्दों में कहें, तो यदि हमें तनावमुक्त होना है तो रागमुक्त होना होगा। इस प्रकार जहाँ भी राग या आसक्ति होगी, वहाँ उसके परिग्रहण और संग्रहण की वृत्ति होगी। अतः यह सुस्पष्ट है कि जहाँ परिग्रह है, वहाँ तनाव है ही। मनोवैज्ञानिकों ने भी यह स्पष्ट किया है कि संग्रह बुद्धि तनाव को जन्म देती है। अतः परिग्रह से मुक्ति या तनावों से मुक्ति तभी सम्भव होगी, जब व्यक्ति की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ कम से कम होंगी। सूत्रकृतांगचूर्णि में कहा गया है कि परिग्रह भी हिंसा ही है, क्योंकि हिंसा के बिना परिग्रह करना असंभव है।35 संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन होता है। परिग्रह वृत्ति में अर्जन है, समर्पण नहीं और जहाँ पर भी अर्जन की वृत्ति है, वहाँ न केवल व्यक्ति स्वयं अपितु उसके परिजन भी तनावग्रस्त बनते हैं। जिस प्रकार हिंसा का सम्बन्ध तनाव से है, उसी तरह से परिग्रह का सम्बन्ध भी तनाव से है। अतः अहिंसा और अपरिग्रह की स्थापना तभी सम्भव हो सकती है। जब व्यक्ति तनावमुक्त बने। जैनदर्शन में कहा गया है कि परिग्रह दो प्रकार का होता है – बाह्य परिग्रह और आभ्यांतर परिग्रह । वस्तुओं का संचय बाह्य परिग्रह में आता है, और राग, द्वेष, कषाय आदि आभ्यांतर परिग्रह में आते हैं। आचार्य हरिभद्र ने बाह्य परिग्रह के निम्न नौ भेद कहे हैं - 1. क्षेत्र – खेत या खुली भूमि आदि। .. 34 अपरिग्गहो अविच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि असणं अपरिम्महो दुं असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। – समयसार, गाथा-212 "आरंभपूर्वका परिग्रहः । - सूत्रकृतांगचूर्णि -1/2/2 36 आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति, अ. 6 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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