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________________ 274 कारणों को तथा उससे होने वाले परिणाम जानता है, वही तनाव से मुक्ति को प्राप्त सकता है। अयथार्थता को अयथार्थ जानने वाला साधक यथार्थता को न जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है। वह व्यक्ति कभी भी असत्य का निराकरण कर सत्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा, जो मिथ्यादृष्टि है। डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि -"साधक के दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, दृष्टि का राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त होना आवश्यक नहीं है; मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता को और उसके कारणों को जाने। किसी भी साधारण व्यक्ति के लिए पूर्णतया राग-द्वेष से मुक्त होना सम्भव नहीं है, फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में स्वाभाविक रूप से जब कमी होती है, तो वह स्वतः एक शांति का अनुभव करता है। इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण वह अयथार्थ को अयथार्थ मान लेता है एवं असत्य को असत्य समझकर सत्य की ओर अभिमुख होता है। इसके पश्चात् उसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि उसका दृष्टिकोण दूषित है, अतः इसका परित्याग कर देना चाहिए। यद्यपि यहां सत्य तो प्राप्त नही होता, लेकिन असत्यता और उसके दुष्परिणामों का बोध हो जाता है। वह यह जान जाता है कि उसकी चेतना की तनावपूर्ण स्थिति का कारण क्या है ? परिणामस्वरूप उसमें तनावमुक्ति की अभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही तनावमुक्ति की अभीप्सा ही तनावमुक्ति की अवस्था तक पहुंचाती है। जैसे-जैसे वह तनावमुक्ति के पथ पर अग्रसर होता जाता है, ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः तनाव के कारणों अर्थात् राग-द्वेषादि में क्रमशः कमी होती जाती है। इसके परिणामस्वरूप उसके दृष्टिकोण में यथार्थता या सम्यक्ता आ जाती है और यही सम्यक्ता तनावमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करती है। 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है कि -"जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है, त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों 'जैन,बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, पृ. 50 'आवश्यकनियुक्ति, 1163 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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